भोले की भक्ति का पर्व : महाशिवरात्रि
भारत पर्वों का देश है यह तो हम सब जानते
हैं और यह पर्व ज्यादातर हमारी भक्ति और ईश्वर की स्तुति पर निर्भर होते
हैं. मार्च माह शुरु हो चुका है और इस माह कई ऐसे त्यौहार आने को हैं जिनका
हमें बेसब्री से इंतजार रहता है. महाशिवरात्रि भी इनमें से एक है. भगवान
शिव और माता पार्वती के विवाह के उपलक्ष्य में मनाया जाने वाला यह त्यौहार
हमारी संस्कृति का एक अहम अंग है.
महाशिवरात्री की कथा :
फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी को शिवरात्रि पर्व मनाया जाता है. माना जाता है कि
सृष्टि के प्रारंभ में इसी दिन मध्यरात्रि भगवान शंकर का ब्रह्मा से रुद्र
के रूप में अवतरण हुआ था. प्रलय की वेला में इसी दिन प्रदोष के समय भगवान
शिव तांडव करते हुए ब्रह्मांड को तीसरे नेत्र की ज्वाला से समाप्त कर देते
हैं. इसीलिए इसे महाशिवरात्रि अथवा कालरात्रि कहा गया. तीनों भुवनों की
अपार सुंदरी तथा शीलवती गौरा को अर्धांगिनी बनाने वाले शिव प्रेतों व
पिशाचों से घिरे रहते हैं. उनका रूप बड़ा अजीब है. शरीर पर मसानों की भस्म,
गले में सर्पों का हार, कंठ में विष, जटाओं में जगत-तारिणी पावन गंगा तथा
माथे में प्रलयंकर ज्वाला है.
भोला है शिव: शिव को
जहां एक ओर प्रलय का कारक माना जाता है वहीं शिव को भोला भी कहा जाता है.
मात्र बेल और भांग के प्रसाद से प्रसन्न होने वाले भगवान शिव की आज के दिन
पूजा अर्चना करने का विशेष महत्व और विधान है. प्राचीन कथा के अनुसार आज के
दिन ही शिव और पार्वती का विवाह हुआ था. नर, मुनि और असुरों के साथ बारात
लेकर शिव माता पार्वती से विवाह के लिए गए थे. शिव की नजर में अच्छे और
बुरे दोनों ही तरह के लोगों का समान स्थान है. वह उनसे भी प्रेम करते हैं
जिन्हें यह समाज ठुकरा देता है. शिवरात्रि को भगवान शिव पर जो बेल और भांग
चढ़ाई जाती है यह शिव की एकसम भावना को ही प्रदर्शित करती है. शिव का यह
संदेश है कि मैं उनके साथ भी हूं जो सभ्य समाजों द्वारा त्याग दिए जाते
हैं. जो मुझे समर्पित हो जाता है, मैं उसका हो जाता हूं.
शिव की महिमा: शिव
सबसे क्रोधी होने के साथ सभी मनोकामनाओं को पूर्ण करने वाले भी हैं. इसीलिए
युवतियां अपने अच्छे पति के लिए शिवजी का सोलह सोमवार का व्रत रखती हैं.
हिंदू मान्यता के अनुसार शिव जी की चाह में माता पार्वती ने भी शिव का ही
ध्यान रखकर व्रत रखा था और उन्हें शिव वर के रुप में प्राप्त हुए थे. इसी
के आधार पर आज भी स्त्रियां अच्छे पति की चाह में शिव का व्रत रखती है और
शिवरात्रि को तो व्रत रखने का और भी महत्व और प्रभाव होता है.
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शिव की आराधना करने वाले उन्हें
प्रसन्न करने के लिए भांग और धतूरा चढ़ाते हैं. इस दिन मिट्टी के बर्तन में
पानी भरकर, ऊपर से बेलपत्र, आक धतूरे के पुष्प, चावल आदि डालकर ‘शिवलिंग’
पर चढ़ाया जाता है. अगर पास में शिवालय न हो, तो शुद्ध गीली मिट्टी से ही
शिवलिंग बनाकर उसे पूजने का विधान है. इसके साथ ही रात्रि के समय शिव पुराण
सुनना चाहिए.
जैसा कि हमेशा ही कहा जाता है शिव भोले
हैं और साथ ही प्रलयकारी भी तो अगर आप भी अपने सामर्थ्य के अनुसार ही शिव
का व्रत रखते हैं तो आपकी छोटी सी कोशिश से ही भगवान शिव अतिप्रसन्न हो
सकते हैं.
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'
अनेकानेक प्राचीन वांग्मय
महाकाल की व्यापक महिमा से आपूरित हैं क्योंकि वे कालखंड, काल सीमा,
काल-विभाजन आदि के प्रथम उपदेशक व अधिष्ठाता हैं।अवन्तिकायां विहितावतारं मुक्ति प्रदानाय च सज्जनानाम् अकालमृत्योः परिरक्षणार्थं वन्दे महाकाल महासुरेशम॥ '
अर्थात
जिन्होंने अवन्तिका नगरी (उज्जैन) में संतजनों को मोक्ष प्रदान करने के
लिए अवतार धारण किया है, अकाल मृत्यु से बचने हेतु मैं उन 'महाकाल' नाम से
सुप्रतिष्ठित भगवान आशुतोष शंकर की आराधना, अर्चना, उपासना, वंदना करता
हूँ। इस
दिव्य पवित्र मंत्र से निःसृत अर्थध्वनि भगवान शिव के सहस्र रूपों में
सर्वाधिक तेजस्वी, जागृत एवं ज्योतिर्मय स्वरूप सुपूजित श्री महाकालेश्वर
की असीम, अपार महत्ता को दर्शाती है।
शिव पुराण की 'कोटि-रुद्र
संहिता' के सोलहवें अध्याय में तृतीय ज्योतिर्लिंग भगवान महाकाल के संबंध
में सूतजी द्वारा जिस कथा को वर्णित किया गया है, उसके अनुसार अवंती नगरी
में एक वेद कर्मरत ब्राह्मण हुआ करता था। वह ब्राह्मण पार्थिव शिवलिंग
निर्मित कर उनका प्रतिदिन पूजन किया करता था। उन दिनों रत्नमाल पर्वत पर
दूषण नामक राक्षस ने ब्रह्माजी से वरदान प्राप्त कर समस्त तीर्थस्थलों पर
धार्मिक कर्मों को बाधित करना आरंभ कर दिया। वह
अवंती नगरी में भी आया और सभी ब्राह्मणों को धर्म-कर्म छोड़ देने के लिए
कहा किन्तु किसी ने उसकी आज्ञा नहीं मानी। फलस्वरूप उसने अपनी दुष्ट सेना
सहित पावन ब्रह्मतेजोमयी अवंतिका में उत्पात मचाना प्रारंभ कर दिया।
जन-साधारण त्राहि-त्राहि करने लगे और उन्होंने अपने आराध्य भगवान शंकर की
शरण में जाकर प्रार्थना, स्तुति शुरू कर दी। तब जहाँ वह सात्विक ब्राह्मण
पार्थिव शिव की अर्चना किया करता था, उस स्थान पर एक विशाल गड्ढा हो गया और
भगवान शिव अपने विराट स्वरूप में उसमें से प्रकट हुए। विकट
रूप धारी भगवान शंकर ने भक्तजनों को आश्वस्त किया और गगनभेदी हुंकार भरी,
'मैं दुष्टों का संहारक महाकाल हूँ...' और ऐसा कहकर उन्होंने दूषण व उसकी
हिंसक सेना को भस्म कर दिया। तत्पश्चात उन्होंने अपने श्रद्धालुओं से वरदान
माँगने को कहा। अवंतिकावासियों ने प्रार्थना की-
'
महाकाल, महादेव! दुष्ट दंड कर प्रभो मुक्ति प्रयच्छ नः शम्भो संसाराम्बुधितः शिव॥ अत्रैव् लोक रक्षार्थं स्थातव्यं हि त्वया शिव स्वदर्श कान् नरांछम्भो तारय त्वं सदा प्रभो॥ अर्थात
हे महाकाल, महादेव, दुष्टों को दंडित करने वाले प्रभु! आप हमें संसार रूपी
सागर से मुक्ति प्रदान कीजिए, जनकल्याण एवं जनरक्षा हेतु इसी स्थान पर
निवास कीजिए एवं अपने (इस स्वयं स्थापित स्वरूप के) दर्शन करने वाले
मनुष्यों को अक्षय पुण्य प्रदान कर उनका उद्धार कीजिए। इस प्रार्थना से अभिभूत होकर भगवान महाकाल स्थिर रूप से वहीं विराजित हो गए और समूची अवंतिका नगरी शिवमय हो गई।
पूर्व काल में चित्रभानु
नामक एक शिकारी था। जानवरों की हत्या करके वह अपने परिवार को पालता था। वह
एक साहूकार का कर्जदार था, लेकिन उसका ऋण समय पर न चुका सका। क्रोधित
साहूकार ने शिकारी को शिवमठ में बंदी बना लिया। संयोग से उस दिन शिवरात्रि
थी। शिकारी ध्यानमग्न होकर शिव-संबंधी धार्मिक बातें सुनता रहा। चतुर्दशी
को उसने शिवरात्रि व्रत की कथा भी सुनी।
शाम होते ही साहूकार ने उसे
अपने पास बुलाया और ऋण चुकाने के विषय में बात की। शिकारी अगले दिन सारा
ऋण लौटा देने का वचन देकर बंधन से छूट गया। अपनी दिनचर्या की भाँति वह जंगल
में शिकार के लिए निकला। लेकिन दिनभर बंदी गृह में रहने के कारण भूख-प्यास
से व्याकुल था। शिकार खोजता हुआ वह बहुत दूर निकल गया। जब अंधकार हो गया
तो उसने विचार किया कि रात जंगल में ही बितानी पड़ेगी। वह वन एक तालाब के
किनारे एक बेल के पेड़ पर चढ़ कर रात बीतने का इंतजार करने लगा। बिल्व
वृक्ष के नीचे शिवलिंग था जो बिल्वपत्रों से ढँका हुआ था। शिकारी को उसका
पता न चला। पड़ाव बनाते समय उसने जो टहनियाँ तोड़ीं, वे संयोग से शिवलिंग
पर गिरती चली गई। इस प्रकार दिनभर भूखे-प्यासे शिकारी का व्रत भी हो गया और
शिवलिंग पर बिल्वपत्र भी चढ़ गए। एक पहर रात्रि बीत जाने पर एक गर्भिणी
हिरणी तालाब पर पानी पीने पहुँची। शिकारी
ने धनुष पर तीर चढ़ाकर ज्यों ही प्रत्यंचा खींची, हिरणी बोली, 'मैं
गर्भिणी हूँ। शीघ्र ही प्रसव करूँगी। तुम एक साथ दो जीवों की हत्या करोगे,
जो ठीक नहीं है। मैं बच्चे को जन्म देकर शीघ्र ही तुम्हारे समक्ष प्रस्तुत
हो जाऊँगी, तब मार लेना।' शिकारी ने प्रत्यंचा ढीली कर दी और हिरणी जंगली
झाड़ियों में लुप्त हो गई। प्रत्यंचा चढ़ाने तथा ढीली करने के वक्त कुछ
बिल्व पत्र अनायास ही टूट कर शिवलिंग पर गिर गए। इस प्रकार उससे अनजाने में
ही प्रथम प्रहर का पूजन भी सम्पन्न हो गया।
कुछ ही देर बाद एक और हिरणी
उधर से निकली। शिकारी की प्रसन्नता का ठिकाना न रहा। समीप आने पर उसने
धनुष पर बाण चढ़ाया। तब उसे देख हिरणी ने विनम्रतापूर्वक निवेदन किया, 'हे
शिकारी! मैं थोड़ी देर पहले ऋतु से निवृत्त हुई हूँ। कामातुर विरहिणी हूँ।
अपने प्रिय की खोज में भटक रही हूँ। मैं अपने पति से मिलकर शीघ्र ही
तुम्हारे पास आ जाऊँगी।' शिकारी ने उसे भी जाने दिया। दो बार शिकार को खोकर
उसका माथा ठनका। वह चिंता में पड़ गया। रात्रि का आखिरी पहर बीत रहा था।
इस बार भी धनुष से लग कर कुछ बेलपत्र शिवलिंग पर जा गिरे तथा दूसरे प्रहर
की पूजन भी सम्पन्न हो गई।
तभी एक अन्य हिरणी अपने
बच्चों के साथ उधर से निकली। शिकारी के लिए यह स्वर्णिम अवसर था। उसने धनुष
पर तीर चढ़ाने में देर नहीं लगाई। वह तीर छोड़ने ही वाला था कि हिरणी
बोली, 'हे शिकारी!' मैं इन बच्चों को इनके पिता के हवाले करके लौट आऊँगी।
इस समय मुझे मत मारो। शिकारी हँसा और बोला, सामने आए शिकार को छोड़ दूँ,
मैं ऐसा मूर्ख नहीं। इससे पहले मैं दो बार अपना शिकार खो चुका हूँ। मेरे
बच्चे भूख-प्यास से व्यग्र हो रहे होंगे। उत्तर में हिरणी ने फिर कहा, जैसे
तुम्हें अपने बच्चों की ममता सता रही है, ठीक वैसे ही मुझे भी। हे शिकारी!
मेरा विश्वास करों, मैं इन्हें इनके पिता के पास छोड़कर तुरंत लौटने की
प्रतिज्ञा करती हूँ। हिरणी
का दीन स्वर सुनकर शिकारी को उस पर दया आ गई। उसने उस मृगी को भी जाने
दिया। शिकार के अभाव में तथा भूख-प्यास से व्याकुल शिकारी अनजाने में ही
बेल-वृक्ष पर बैठा बेलपत्र तोड़-तोड़कर नीचे फेंकता जा रहा था। पौ फटने को
हुई तो एक हृष्ट-पुष्ट मृग उसी रास्ते पर आया। शिकारी ने सोच लिया कि इसका
शिकार वह अवश्य करेगा। शिकारी की तनी प्रत्यंचा देखकर मृग विनीत स्वर में
बोला, हे शिकारी! यदि तुमने मुझसे पूर्व आने वाली तीन मृगियों तथा
छोटे-छोटे बच्चों को मार डाला है, तो मुझे भी मारने में विलंब न करो, ताकि
मुझे उनके वियोग में एक क्षण भी दुःख न सहना पड़े। मैं उन हिरणियों का पति
हूँ। यदि तुमने उन्हें जीवनदान दिया है तो मुझे भी कुछ क्षण का जीवन देने
की कृपा करो। मैं उनसे मिलकर तुम्हारे समक्ष उपस्थित हो जाऊँगा।
मृग की बात सुनते ही शिकारी
के सामने पूरी रात का घटनाचक्र घूम गया, उसने सारी कथा मृग को सुना दी। तब
मृग ने कहा, 'मेरी तीनों पत्नियाँ जिस प्रकार प्रतिज्ञाबद्ध होकर गई हैं,
मेरी मृत्यु से अपने धर्म का पालन नहीं कर पाएँगी। अतः जैसे तुमने उन्हें
विश्वासपात्र मानकर छोड़ा है, वैसे ही मुझे भी जाने दो। मैं उन सबके साथ
तुम्हारे सामने शीघ्र ही उपस्थित होता हूँ।' शिकारी
ने उसे भी जाने दिया। इस प्रकार प्रात: हो आई। उपवास, रात्रि-जागरण तथा
शिवलिंग पर बेलपत्र चढ़ने से अनजाने में ही पर शिवरात्रि की पूजा पूर्ण हो
गई। पर अनजाने में ही की हुई पूजन का परिणाम उसे तत्काल मिला। शिकारी का
हिंसक हृदय निर्मल हो गया। उसमें भगवद्शक्ति का वास हो गया। थोड़ी
ही देर बाद वह मृग सपरिवार शिकारी के समक्ष उपस्थित हो गया, ताकि वह उनका
शिकार कर सके।, किंतु जंगली पशुओं की ऐसी सत्यता, सात्विकता एवं सामूहिक
प्रेमभावना देखकर शिकारी को बड़ी ग्लानि हुई। उसने मृग परिवार को जीवनदान
दे दिया।
अनजाने में शिवरात्रि के
व्रत का पालन करने पर भी शिकारी को मोक्ष की प्राप्ति हुई। जब मृत्यु काल
में यमदूत उसके जीव को ले जाने आए तो शिवगणों ने उन्हें वापस भेज दिया तथा
शिकारी को शिवलोक ले गए। शिव जी की कृपा से ही अपने इस जन्म में राजा
चित्रभानु अपने पिछले जन्म को याद रख पाए तथा महाशिवरात्रि के महत्व को जान
कर उसका अगले जन्म में भी पालन कर पाए। शिवकथा का संदेश शिकारी
की कथानुसार महादेव तो अनजाने में किए गए व्रत का भी फल दे देते हैं। पर
वास्तव में महादेव शिकारी की दया भाव से प्रसन्न हुए। अपने परिवार के कष्ट
का ध्यान होते हुए भी शिकारी ने मृग परिवार को जाने दिया। यह करुणा ही
वस्तुत: उस शिकारी को उन पण्डित एवं पूजारियों से उत्कृष्ट बना देती है जो
कि सिर्फ रात्रि जागरण, उपवास एव दूध, दही, एवं बेल-पत्र आदि द्वारा शिव को
प्रसन्न कर लेना चाहते हैं। इस कथा में सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि इस
कथा में 'अनजाने में हुए पूजन' पर विशेष बल दिया गया है। इसका अर्थ यह नहीं
है कि शिव किसी भी प्रकार से किए गए पूजन को स्वीकार कर लेते हैं अथवा
भोलेनाथ जाने या अनजाने में हुए पूजन में भेद नहीं कर सकते हैं।
वास्तव में वह शिकारी शिव
पूजन नहीं कर रहा था। इसका अर्थ यह भी हुआ कि वह किसी तरह के किसी फल की
कामना भी नहीं कर रहा था। उसने मृग परिवार को समय एवं जीवन दान दिया जो कि
शिव पूजन के समान है। शिव का अर्थ ही कल्याण होता है। उन निरीह प्राणियों
का कल्याण करने के कारण ही वह शिव तत्व को जान पाया तथा उसका शिव से
साक्षात्कार हुआ। परोपकार
करने के लिए महाशिवरात्रि का दिवस होना भी आवश्यक नहीं है। पुराण में चार
प्रकार के शिवरात्रि पूजन का वर्णन है।मासिक शिवरात्रि, प्रथम आदि
शिवरात्रि, तथा महाशिवरात्रि। पुराण वर्णित अंतिम शिवरात्रि है-नित्य
शिवरात्रि। वस्तुत: प्रत्येक रात्रि ही 'शिवरात्रि' है अगर हम उन परम
कल्याणकारी आशुतोष भगवान में स्वयं को लीन कर दें तथा कल्याण मार्ग का
अनुसरण करें, वही शिवरात्रि का सच्चा व्रत है।