Thursday 28 February 2013
॥ श्री महालक्ष्मी माहात्म्य ॥
आता महात्म्य वर्णावयास । शरण तिच्या चरणास । वंदितो स्फूर्ति देण्यास । माहात्म्य गावे म्हणून ॥८॥
वृद्धा म्हणे माझे नाव कमला । भुवनेश पति मजला । द्वारकेत असते वस्तीला । राणीस भेटणे असे ॥२८॥
त्या पुण्ये पुढले जन्मी । वैश्यपत्नी झाली राणि । वैभव विलास भोगुनि । अहंकार प्रवर्तला ॥४७॥
देवीचे चित्र साजिरे । कलशाजवळ ठेवावे । तैसेच लक्ष्मीयंत्रहि असावे । त्याजवळी ॥६२॥
दुसरे दिवशी स्नानोत्तर । घेऊनि दूध साखर । नैवेद्यानंतर । पूजा विसर्जन करावि ॥८२॥
इच्छा मनातली सारी । पूर्ण झाली लवकरी । लक्ष्मी प्रभावास नाही सरी । हेच खरे ॥१०२॥
सत्वरि निघाली घेऊनी रथ । वेगे चाले वाटे लांब पथ । सत्वर उतरून तेथ । वंदिले मातेस ॥१२४॥
म्हणू लक्ष्मीदेवीस । सतत स्मरावे रात्रंदिवस । देईल तीच सौख्यास । भावबळे पूजिता ॥१४६॥
भगवान दत्तात्रेय का परिचय
भगवान दत्तात्रेय का परिचय
भगवान दत्तात्रेय की जयंती
मार्गशीर्ष माह में मनाई जाती है। दत्तात्रेय में ईश्वर और गुरु दोनों रूप
समाहित हैं इसीलिए उन्हें 'परब्रह्ममूर्ति सद्गुरु'और 'श्रीगुरुदेवदत्त'भी
कहा जाता हैं। उन्हें गुरु वंश का प्रथम गुरु, साथक, योगी और वैज्ञानिक
माना जाता है। हिंदू मान्यताओं अनुसार दत्तात्रेय ने पारद से व्योमयान
उड्डयन की शक्ति का पता लगाया था और चिकित्सा शास्त्र में क्रांतिकारी
अन्वेषण किया था।
हिंदू
धर्म के त्रिदेव ब्रह्मा, विष्णु और महेश की प्रचलित विचारधारा के विलय के
लिए ही भगवान दत्तात्रेय ने जन्म लिया था, इसीलिए उन्हें त्रिदेव का
स्वरूप भी कहा जाता है। दत्तात्रेय को शैवपंथी शिव का अवतार और वैष्णवपंथी
विष्णु का अंशावतार मानते हैं। दत्तात्रेय को नाथ संप्रदाय की नवनाथ परंपरा
का भी अग्रज माना है। यह भी मान्यता है कि रसेश्वर संप्रदाय के प्रवर्तक
भी दत्तात्रेय थे। भगवान दत्तात्रेय से वेद और तंत्र मार्ग का विलय कर एक
ही संप्रदाय निर्मित किया था।
शिक्षा और दीक्षा : भगवान
दत्तात्रेय ने जीवन में कई लोगों से शिक्षा ली। दत्तात्रेय ने अन्य पशुओं
के जीवन और उनके कार्यकलापों से भी शिक्षा ग्रहण की। दत्तात्रेयजी कहते हैं
कि जिससे जितना-जितना गुण मिला है उनको उन गुणों को प्रदाता मानकर उन्हें
अपना गुरु माना है, इस प्रकार मेरे 24 गुरु हैं। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु,
आकाश, चंद्रमा, सूर्य, कपोत, अजगर, सिंधु, पतंग, भ्रमर, मधुमक्खी, गज, मृग,
मीन, पिंगला, कुररपक्षी, बालक, कुमारी, सर्प, शरकृत, मकड़ी और भृंगी।
माध्यमिक तंत्र-साहित्य
देवताओं के उपासनासंबंध से तंत्र का भेदनिरूपण संक्षेप में कुछ इस प्रकार होगा-
1. काली (भैरव; महाकाल) के नाना प्रकार के भेद हैं, जैसे, दक्षिणाकाली, भद्रकाली। काली दक्षिणान्वय की देवता हैं। श्यमशान काली उत्तरान्वय की देवता हैं। इसके अतिरिक्त कामकला काली, धन-काली, सिद्धकाली, चंडीकाली प्रभृति काली के भेद भी हैं।
2. महाकाली के कई नाम प्रसिद्ध हैं। नारद , पांचरात्र , आदि ग्रंथों से पता चलता है कि विश्वामित्र ने काली के अनुग्रह से ही ब्रह्मण्य-लाभ किया था। काली के विषय में 'शक्तिसंगम तंत्र' के अनुसार काली और त्रिपुरा विद्या का साद्दश्य दिखाई देता है-
काली त्रिपुरा
एकाक्षरी बाला
सिद्धकाली पंचदशी
दक्षिणाकाली षोडशी
कामकला काली पराप्रसाद
हंसकाली चरणदीक्षा
गुह्मकाली षट्संभव परमेंश्वरी
दस महाविद्यायों में 'संमोहन तंत्र' के अनुसार ये भेद हैं -
वाममार्गी दक्षिणमार्गी
छित्रा बाला, कमला
सुमुखी भुवनेश्वरी, लक्ष्मी, तारा, बगला, सुंदरी, तथा राजमातंगी।
काली के विषय में कुछ प्रसिद्ध तंत्र ग्रंथों के नाम इस प्रकार हैं-
1. महाकाल संहिता, (50 सहस्रश्लोकात्मक अथवा अधिक)
2. परातंत्र (यह काली विष्यक प्राचीन तंत्र ग्रंथ है। इसमें चार पटल हैं, एक ही महाशक्ति पÏट्सहानारूढा षडान्वया देवी हैं। इस ग्रंथ के अनुसार पूर्वान्वय की अधिष्ठातृ देवी पूर्णोश्वरी, दक्षिणान्वय की विश्वेश्वरी, पूर्वान्य की कुब्जिका, उत्तरान्वय की काली, ऊद्र्धान्वय की श्रीविद्या।)
3. काली यामल; 4. कुमारी तंत्र; 5. काली सुधानिध; 6. कालिका मत; 9. काली कल्पलता; 8. काली कुलार्णव; 5. काली सार; 10 कालीतंत्र; 11. कालिका कुलसद्भाव; 13. कालीतंत्र; 14. । 15. कालज्ञान और कालज्ञान के परिशिष्टरूप में कालोत्तर; 16. काली सूक्त; 17. कालिकोपनिषद्; 18. काली तत्व (रामभटटकृत); 19. भद्रकाली चितामणि; 20. कालीतत्व रहस्य; 21. कालीक्रम कालीकल्प या श्यामाकल्प; 22. कालीऊध्र्वान्वय; 23. कालीकुल; 24. कालीक्रम; 25. कालिकोद्भव; 26. कालीविलास तंत्र; 27. कालीकुलावलि; 28. वामकेशसंहिता; 29. काली तत्वामृत; 30. कालिकार्चामुकुर; 31. काली या श्यामारहस्य (श्रीनिवास कृत); 33. कालिकाक्रम; 34. कालिका ह्रदय; 35. काली खंड (शक्तिसंगम तंत्र का);36. काली-कुलामृत; 37. कालिकोपनिषद् सार; 38. काली कुल क्रमार्चन (विमल बोध कृत); 39. काली सपर्याविधि (काशीनाथ तर्कालंकार भट्टाचार्य कृत); 40. काली तंत्र सुधसिंधु (काली प्रसाद कृत); 41. कुलमुक्ति कल्लोलिनी (अव्दानंद कृत); 24. काली शाबर; 43. कौलावली; 44. कालीसार; 45. कालिकार्चन दीपिका (लगदानंद कृत); 46. श्यामर्चन तरंगिणी (विश्वनाथ कृत); 47. कुल प्रकाश; 48. काली तत्वामृत (बलभद्र कृत); 49. काली भक्ति रसायन (काशीनाथ भट्ट कृत); 50. कालीकुल सर्वस्व; 51. काली सुधानिधि; 52. कालिकोद्रव (?); 53. कालीकुलार्णव; 54. कालिकाकुल सर्वस्व; 56. कालोपरा; 57. कालिकार्चन चंद्रिका (केशवकृत) इत्यादि।
2- तारा : तारा के विषय में निम्नलिखित तंत्र ग्रथ विशेष उल्लेखनीय हैं-
1 तारणीतंत्र; 2. तोडलतंत्र; 3- तारार्णव; 4- नील-तंत्र; 5- महानीलतंत्र; 6- नील सरस्वतीतंत्र; 7- चीलाचार; 8- तंत्ररत्न; 9- ताराशाबर तंत्र; 10- तारासुधा; 11- तारमुक्ति सुधार्णव (नरसिंह ठाकुर कृत); 12- तारकल्पलता; - (श्रीनिवास कृत) ; 13- ताराप्रदीप (लक्ष्मणभट्ट कृत) ; 14- तारासूक्त; 15- एक जटीतंत्र; 16- एकजटीकल्प; 17- महाचीनाचार क्रम (ब्रह्म यामल स्थित) 18- तारारहस्य वृति; 19- तारामुक्ति तरंगिणी (काशीनाथ कृत); 20- तारामुक्ति तरंगिणी (प्रकाशनंद कृत); 21- तारामुक्ति तरंगिणी (विमलानंद कृत); 22- महाग्रतारातंत्र; 23- एकवीरतंत्र; 24- तारणीनिर्णय; 25- ताराकल्पलता पद्धति (नित्यानंद कृत); 26- तारिणीपारिजात (विद्वत् उपाध्याय कृत); 27- तारासहस्स्र नाम (अभेदचिंतामणिनामक टीका सहित); 28- ताराकुलपुरुष; 29- तारोपनिषद्; 30- ताराविलासोदय ) (वासुदेवकृत)।
'तारारहस्यवृत्ति' में शंकराचार्य ने कहा है कि वामाचार, दक्षिणाचार तथा सिद्धांताचार में सालोक्यमुक्ति संभव है। परंतु सायुज्य मुक्ति केवल कुलागम से ही प्राप्य है। इसमें और भी लिखा गया है कि तारा ही परा वग्रूपा, पूर्णाहंतामयी है। शक्तिसंगमतंत्र में भी तारा का विषय वर्णित है। रूद्रयामल के अनुसार प्रलय के अनंतर सृष्टि के पहले एक वृहद् अंड का आविर्भाव होता है। उसमें चतुर्भुज विष्णु प्रकट होते हैं जिनकी नाभि में ब्रह्मा ने विष्णु से पूछा- किसी आराधना से चतुभ्र्वेद का ज्ञान होता है। विष्णु ने कहा रूद्र से पूछो- रूद्र ने कहा मेरू के पश्चिम कुल में चोलह्द में वेदमाता नील सरस्वती का आविर्भाव हुआ। इनका निर्गम रूद्र के ऊध्र्व वस्त्र से है। यह तेजरूप से निकलकर चौलह्रद में गिर पड़ीं और नीलवर्ण धारण किया। ह्रद के भीतर अक्षोभ्य ऋषि विद्यमान थे। यह रूद्रयामल की कथा है।
1. षोडशी (श्रीविद्या) : श्रीविद्या का नामांकर है षोडशी। त्रिपुरसंुदरी, त्रिपुरा, ललिता, आदि भी उन्हीं के नाम है। इनके भैरव हैं- त्रिपुर भैरव (देव शक्ति संगमतंत्र)। महाशक्ति के अनंत नाम और अनंत रूप हैं। इनका परमरूप एक तथा अभिन्न हैं। त्रिपुरा उपासकों के सतानुसार ब्रह्म आदि देवगण त्रिपुरा के उपासक हैं। उनका परमरूप इंद्रियों तथा मन के अगोचर है। एकमात्र मुक्त पुरूष ही इनका रहस्य समझ पाते हैं। यह पूर्णाहंतारूप तथा तुरीय हैं। देवी का परमरूप वासनात्मक है, सूक्ष्मरूप मंत्रात्मक है, स्थूलरूप कर-चरणादि-विशिष्ट है। उनके उपासकों में प्रथम स्थान काम (मन्मथ) का है। यह देवी गुहय विद्या प्रवर्तक होने के कारण विश्वेश्वरी नाम से प्रसिद्ध हैं। देवी के बारह मुख और नाम प्रसिद्ध हैं। - यथा, मनु, चंद्र, कुबेर, लोपामुद्रा, मन्मथ, अगस्त्य, अग्नि, सूर्य, इंद्र, स्कंद, शिव, क्रोध भट्टारक (या दुर्वासा)। इन लोगों ने श्रीविद्या की साधना से अपने अधिकार के अनुसार पृथक् फल प्राप्त किया था।
श्रीविद्या के मुख्य 12 संप्रदाय हैं। इनमें से बहुत से संप्रदाय लुप्त हो गए है, केवल मन्मथ और कुछ अंश में लोपामुद्रा का संप्रदाय अभी जीवित है। कामराज विद्या (कादी) और पंचदशवर्णात्मक तंत्र राज, और त्रिपुरउपनिषद के समान लोपामुद्रा विद्या आदि भी पंचदशवर्णात्मक हैं। कामेश्वर अंकस्थित कामेश्वरी की पूजा के अवसर पर इस विद्या का उपयोग होता हैद्य लोपामुद्रा अगस्त की धर्मपत्नी थीं। वह विदर्भराज की कन्या थीं। पिता के घर में रहने के समय पराशक्ति के प्रति भक्तिसंपन्न हुई थीं। त्रिपुरा की मुख्य शक्ति भगमालिनी है। लोपामुद्रा के पिता भगमालिनी के उपासक थे। लोपामुद्रा बाल्यकाल से पिता की सेवा करती थी। उन्होंने पिता की उपासना देखकर भगमालिनी की उपासना प्रारंभ कर दी। देवी ने प्रसन्न होकर जगन्माता की पदसेवा का अधिकार उन्हें दिया थाद्य त्रिपुरा विद्या का उद्धार करने पर उनके नाम से लोपामुद्रा ने ऋषित्व प्राप्त कियाद्। अगस्त्य वैदिक ऋषि थे। बाद में अपनी भार्या से उन्होंने दीक्षा ली।
दुर्वासा का संप्रदाय भी प्राय: लुप्त ही है। श्रीविद्या, शक्ति चक्र सम्राज्ञी है और ब्रह्मविद्या स्वरूपा है। यही आत्मशक्ति है। ऐसी प्रसिद्धि है कि -
यत्रास्ति भोगो न च तत्र मोझो;
यत्रास्ति भोगे न च तत्र भोग:।
श्रीसुंदरीसेवनतत्परानां,
भोगश्च मोक्षश्च करस्थ एव।,
अगस्त्य केवल तंत्र में ही सिद्ध नहीं थें, वे प्रसिद्ध वैदिक मंत्रों के द्रष्टा थे। श्री शंकरमठ में भी बराबर श्रीविद्या की उपासना और पूजा होती चली आ रही है।
त्रिपुरा की स्थूलमूर्ति का नाम ललिता है। ऐसी किवदंती है कि अगस्त्य तीर्थयात्रा के लिये घूमते समय जीवों के दु:ख देखकर अत्यंत द्रवित हुए थे। उन्होंने कांचीपुर में तपस्या द्वारा महाविष्णु को तुष्ट किया था। उस समय महाविष्णु ने प्रसन्न होकर उनके सामने त्रिपुरा की स्थूलमूर्ति ललिता का माहात्म्य वर्णित किरण जिस प्रसंग में भंडासुर वध प्रभृति का वर्णन था, इसका सविस्तर विवरण उनके स्वांश हयग्रीव मुनि से श्रवण करें। इसके अनंतर हयग्रीव मुनि ने अगस्त्य को भंडासुर का वृत्तांत बतलाया। इस भंडासुर ने तपस्या के प्रभाव से शिव से वर पाकर 105 ब्रह्मांडों का अधिपत्य लाभ किया था। श्रीविद्या का एक भेद कादी है, एक हे हादी और एक कहादी।
श्रीविद्या गायत्री का अत्यंत गुप्त रूप है। यह चार वेदों में भी अत्यंत गुप्त है। प्रचलित गायत्री के स्पष्ट और अस्पष्ट दोनों प्रकार हैं। इसके तीन पाद स्पष्ट है, चतुर्थ पाद अस्पष्ट है। गायत्री वेद का सार है। वेद चतुर्दश विद्याओं का सार है। इन विद्याओं से शक्ति का ज्ञान प्राप्त होता है। कादी विद्या अत्यंत गोपनीय है। इसका रहस्य गुरू के मुख से ग्रहण योग्य है। संमोहन तंत्र के अनुसार तारा, तारा का साधक, कादी तथा हादी दोनों मत से संश्लिष्ट है। हंस तारा, महा विद्या, योगेश्वरी कादियों की दृष्टि से काली, हादियों की दृष्टि से शिवसुदरी और कहादी उपासकों की दृष्टि से हंस है। श्री विद्यार्णव के अनुसार कादी मत मधुमती है। यह त्रिपुरा उपासना का प्रथम भेद है। दूसरा मत मालिनी मत (काली मत) है। कादी मत का तात्पर्य है जगत चैतन्य रूपिणी मधुमती महादेवी के साथ अभेदप्राप्ति। काली मत का स्वरूप है विश्वविग्रह मालिनी महादेवी के साथ तादात्म्य होना । दोनों मतों का विस्तृत विवरण श्रीविद्यार्णव में है।
गोड़ संप्रदाय के अनुसार श्रेष्ठ मत कादी है, परंतु कश्मीर और केरल में प्रचलित शाक्त मतों के अनुसार श्रेष्ठ मत त्रिपुरा और तारा के हैं। कादी देवता काली है। हादी उपासकों की त्रिपुरसंदरी हैं और कहादी की देवता तारा या नील सरस्वती हैं। त्रिपुरा उपनिषद् और भावनोपनिषद् कादी मत के प्रसिद्ध ग्रंथ हैं। किसी किसी के मतानुसार कौल उपनिषद् भी इसी प्रकार का है, त्रिपुरा उपनिषद् के व्याख्याकार भास्कर के अनुसार यह उपविद्या सांख्यायन आरणयक के अंतर्गत है।
हादी विद्या का प्रतिपादन त्रिपुरातापिनी उपनिषदद्य में है। प्रसिद्धि है कि दुर्वासा मुनि त्रयोदशाक्षरवाली हादी विद्या के उपासक थे। दुर्वासा रचित ललितास्तव रत्न नामक ग्रंथ बंबई से प्रकाशित हुआ है।
मैंने एक ग्रंथ दुर्वासाकृत परशंमुस्तुति देखा था, जिसका महाविभूति के बाद का प्रकरण है अंतर्जा विशेष उपचार परामर्श। दुर्वासा का एक और स्तोत्र है त्रिपुरा महिम्न स्तोत्र। उसके ऊपर नित्यानंदनाथ की टीका है। सौभाग्यहृदय स्तोत्र नाम से एक प्रसिद्ध स्तोत्र है जिसके रचयिता महार्थमंजरीकार गोरक्ष के परमगुरू हैं। योगिनी हृदय या उत्त्र चतु:शती सर्वत्र प्रसिद्ध है। पूर्व चतु:शती रामेश्वर कृत परशुराम कल्पसूत्र की वृति में है। ब्रह्मांड पुराण के उत्तरखंड में श्री विद्या के विषय में एक प्रकरण हैद्य यह अनंत, दुर्लभ, उत्तर खंड में त्रिशति अथवा ललितात्रिशति नाम से प्रसिद्ध स्तव है जिसपर शंकराचाय्र की एक टीका भी है। इसका प्रकाशन हा चुका है। नवशक्ति हृदयशास्त्र के विषय में योगिनी की दीपिका टीका में उल्लेख है।
इस प्रस्थान में सूत्रग्रंथ दो प्रसिद्ध हैं: एक अगस्त्य कृत, शक्ति सूत्र और दूसरा प्रत्यभिज्ञाहृदय नामक शक्तिसूत्र। परशुराम कृतकल्पसूत्र भी सूत्रसाहित्य के अंतर्गत है। यह त्रिपुरा उपनिषद का उपबृंहण है। ऐसी प्रसिद्धि है कि इसपर रामेश्वर की एक वृत्ति है जिसका नाम सौभाग्योदय है एवं जिसकी रचना 1753 शकाब्द में हुई थी। इसका भी प्रकाशन हो चुका है। इस कल्पसूत्र के ऊपर भास्कर राय ने रत्नालोक नाम की टीका बनाई थी। अभी यह प्रकाशित नहीं हुई है। गौड़पाद के नाम से श्रीविष्णुरत्न सूत्र प्रसिद्ध है। इसपर प्रसिद्ध शंकरारणय का व्याख्यान है। यह टीका सहित प्रकाशित हुआ है। सौभग्य भास्कर में त्रैपुर सूक्त नाम से एक सूक्त का पता चलता है। इसके अतिरिक्त एक और भी सूत्रग्रंथ बिंदु सूत्र है। भास्कर ने भावनोपनिषद भाष्य में इसका उल्लेख किया है। किसी प्राचीन गंथागार में कौल सूत्र, का एक हस्तलिखित ग्रंथ दिखाई पड़ा था जो अभी तक मुद्रित नहीं हुआ है।
स्तोत्र ग्रंथें में दुर्वासा का ललितास्तव ग्रंथ प्रसिद्ध है। इसका उल्लेख ऊपर किया गया है। गौड़पाद कृत सौभाग्योदय स्तुति आदि प्रसिद्ध ग्रंथ हैं जिनपर शंकराचार्य की टीकाएँ मिलती हैं। ऐसा कहा जाता है कि सौभाग्योदय के ऊपर लक्ष्मीधर ने भी एक टीका लिखी थी। सौभाग्योदय स्तुति की रचना के अनंतर शंकरार्चा ने सौंदर्य लहरी का निर्माण किया जो आनंदलहरी नाम से भी प्रसिद्ध है। इनके अतिरिक्त ललिता सहस्र नाम एक प्रसिद्ध ग्रंथ है जिसपर भास्कर की टीका सौभाग्य भास्कर (रचनाकाल 1729 ई0) है। ललिता सहस्रनाम के ऊपर काशीवासी पं0 काशीनाथ भट्ट की भी एक टीका थी। काशीनाथ भट्ट दीक्षा लेने पर शिवानंद के नाम से प्रसिद्ध हुए। उनकी टीका का नाम नामार्थ संदीपनी है।
श्री विद्यार्णव के अनुसार कादी या मधुमती मत के मुख्य चार ग्रंथ हैं- तंत्रराज, मातृकार्षव, योगिनीहृदय नित्याषोडशार्णव और वामकेश्वर वस्तुत: पृथक ग्रंथ नहीं हैं, एक ग्रंथ के ही अंशगत भेद हैं। इसी प्रकार बहुरूपाष्टक एक पुस्तक नहीं है। यह आठ पुस्तकों की एक पुस्तक है।
तंत्रराज के पूर्वार्ध और उत्तरार्ध दो भाग हैं। 64 तंत्रों के विषय जहाँ सौंदर्यलहरी में आए हैं उस स्थल में इस विषय में चर्चा की गई है जिससे पता चलता है कि (विशेषत: लक्ष्मीघर की टीका में) मतांतर तंत्र राजटीका मनोरमा का मत प्रतीत होता है।
भास्कर राय ने सेतुबंध में भी आलोचना प्रस्तुत की है। तंत्र राज में जो नित्याहृदय की बात कही गयी है वह वस्तुत: योगिनीहृदय का ही नामांतर है। यह वामकेश्वर तंत्र का उत्तरार्ध है। नित्याहृदय इत्येतत् तंत्रोत्तरार्धस्य योगिनी हृदयस्य संज्ञा।
ऐसा प्रतीत होता है कि दो मतों के कारण दो विभाग हैं। वर्णसम और मंत्रसम के नाम पर ये नाम है। क, ह, ये महामंत्र उत्त्रान्वय के हैं। ककार से ब्रह्मरूपता है। यह कादी मत है। हकार से शिवरूपता, हादी मत है। कादी मत, काली मत और हादी मत सुंदरी मत हैं। दोनों मिलकर कहादी मत होता है। सुंदरी में प्रपंच है। जो सुंदरी से भिन्न है उसमें प्रपंच नहीं है। सौंदर्य सवदर्शन है। ब्रह्मसंदर्शन का अर्थ है असौंदर्य का दर्शन। 58 पटल में है कि भगवती सुंदरी कहती हैं- अहं प्रपंचभूताऽस्मि, सा तु निर्णुणारूपिणी (शक्ति संगमतंत्र, अध्याय 58)। कोई कोई कहते हैं कि कादी, हादी और कहादी आदि भेदों से तंत्रराज के कई भेद हैं। योगिनीहृदय सुप्रसिद्ध ग्रंथ है। यह वामकेश्वर तंत्र का उत्तर चतु:शती है। भास्कर राय ने भावनोपनिषद के भाष्य में कहा है कि यह कादी मतानुयायी ग्रंथ है। तंत्रराज की टीका मनोरमा में भी यही बात मिलती है परंतु बरिबास्य रहस्य में है कि इसकी हादी मतानुकृल व्याख्या भी वर्तमान है। योगिनी हृदय ही नित्याहृदय के नाम से प्रसिद्ध है।
श्रीविद्या विषयक कुछ ग्रंथ ये हैं-
1. तंत्रराज- इसकी बहुत टीकाएँ हैं। सुभगानंदनाथ कृत मनोरमा मुख्य है। इसपर प्रेमनिधि की सुदर्शिनी नामक टीका भी है। भाष्स्कर की और शिवराम की टीकाएँ भी मिलती हैं।
2. तंत्रराजोत्तर
3. परानंद या परमानंद तंत्र - किसी किसी के अनुसार यह श्रीविद्या का मुख्य उपासनाग्रंथ है। इसपर सुभगानंद की सुभगानंद संदोह नाम्नी टीका थ। कल्पसूत्र वृत्ति से मालूम होता है कि इसपर और भी टीकाएँ थी।
4. सौभाग्य कल्पद्रुम परमानंद के अनुसार यह श्रेक्ष्ठ ग्रंथ है।
5. सौभाग्य कल्पलतिका क्षेमानंद कृत।
6. वामकेश्वर तंत्र (पूर्वचतु:शती और उत्तर चतु:शती) इसपर भास्कर की सेतुबंध टीका प्रसिद्ध है। जयद्रथ कृत वामकेश्वर विवरण भी है।
7. ज्ञानार्णव- यह 26 पटल में है।
8-9. श्री क्रम संहिता तथा वृहद श्री क्रम संहिता।
10. दक्षिणामूर्त्ति संहिता - यह 66 पटल में है।
11. स्वच्छंद तंत्र अथवा स्वच्छंद संग्रह।
12. कालात्तर वासना सौभाग्य कल्पद्रुप में इसकी चर्चा आई है।
13. त्रिपुरार्णव। 14. श्रीपराक्रम: इसका उल्लेख योगिनी-हृदय-दीपका में है।
15. ललितार्चन चंद्रिका - यह 17 अध्याय में है।
16. सौभाग्य तंत्रोत्तर। 17. मातृकार्णव
18. सौभाग्य रत्नाकर: (विद्यानंदनाथ कृत)
19. सौभाग्य सुभगोदय - (अमृतानंदनाथ कृत)
20. शक्तिसंगम तंत्र- (सुंदरी खंड)
21. त्रिपुरा रहस्य - (ज्ञान तथा माहात्म्य खंड)
22. श्रीक्रमात्तम - (निजपकाशानंद मल्लिकार्जुन योगींद्र कृत)
23. अज्ञात अवतार - इसका उल्लेख योगिनी हृदय दीपिका में हैं।
24-25. सुभगार्चापारिजात, सुभगार्चारत्न: सौभाग्य भास्कर में इनका उल्लेख है।
26. चंद्रपीठ
27. संकेतपादुका
28. सुंदरीमहोदय - शंकरानंदनाथा कृत
29. हृदयामृत- (उमानंदनाथ कृत)
30. लक्ष्मीतंत्र: इसें त्रिपुरा माहात्म्य है।
31. ललितोपाख्यान - यह ब्रह्मांड पुराण के उत्तरखंड में है।
32. त्रिपुरासार समुच्चय (लालूभट्ट कृत) 33. श्री तत्वचिंतामणि (पूर्णानंदकृत)
34. विरूपाक्ष पंचाशिका 35. कामकला विलास 36. श्री विद्यार्णव
37. शाक्त क्रम (पूर्णानंदकृत)
38. ललिता स्वच्छंद
39. ललिताविलास
40. प्रपंचसार (शंकराचार्य कृत)
41. सौभाग्यचंद्रोदय (भास्कर कृत)
42. बरिबास्य रहस्य: (भास्कर कृत)
43. बरिबास्य प्रकाश (भास्कर कृत)
44. त्रिपुरासार
45. सौभाग्य सुभगोदय: विद्यानंद नाथ कृत
46. संकेत पद्धति
47. परापूजाक्रम
48. चिदंबर नट।
तंत्रराज (कादीमत) में एक श्लोक इस प्रकार है- नित्यानां शोडषानां च नवतंत्राणिकृत्स्नस:। सुभगानंद नाथ ने अपनी मनोरमा टीका में कहा है- इस प्रसंग में नवतंत्र का अर्थ है- सुंदरीहृदय। चंद्रज्ञान, मातृकातंत्र, संमोहनतंत्र, मावकेश्वर तंत्र, बहुरूपाष्टक, प्रस्तारचिंतामणि के समान इसे समझना चाहिए। इस स्थल में सुंदरीहृदय का योगिनीह्रदय से तादात्म्य है। वामकेश्वर आदि तंत्रग्रंथों का पृथक् पृथक् उल्लेख भी हुआ है। नित्याषोडशार्णव में पृथक् रूप से इसका उल्लेख किया गया है, परंतु अन्य नित्यातंत्रों के भीतर प्रसिद्ध श्रीक्रमसंहिता और ज्ञानार्णव के उल्लेख नहीं है।
दस महाविद्या: इस महाविद्याओं में पहली त्रिशक्तियों का प्रतिष्ठान जिन ग्रंथों में है उनमें से संक्षेप में कुछ ग्रंथों के नाम ऊपर दिए गए हैं। भुवनेश्वरी के विषय में भुवनेश्वरी रहस्य मुख्य ग्रंथ है। यह 26 पटलों में पूर्ण है। पृथ्वीधराचार्य का भुवनेश्वरी अर्चन पद्धति एक उत्कृष्ट ग्रंथ है। ये पृश्रवीधर गांविंदपाद के शिष्य शंकराचार्य के शिष्य रूप से परिचित हैं। भुवनेश्वरीतंत्र नाम से एक मूल तंत्रग्रंथ भी मिलता हैं। इसी प्रकार राजस्थान पुरात्तत्व ग्रथमाला में पृथ्वीधर का भुवनेश्वरी महास्तोत्र मुद्रित हुआ है।
भैरवी के विषय में भैरवीतंत्र' प्रधान ग्रंथ है। यह प्राचीन ग्रंथ है। इसके अतिरिक्त भैरवीरहस्य , भैरवी सपयाविधि आदि ग्रंथ भी मिलते हैं। पुरश्चर्यार्णव नामक ग्रंथ में भैरवी यामल का उल्लेख है।
भैरवी के नाना प्रकार के भेद हैं- जैसे, सिद्ध भैरवी, त्रिपुरा भैरवी, चैतन्य भैरवी, भुवनेश्वर भैरवी, कमलेश्वरी भैरवी, संपदाप्रद भैरवी, कौलेश्वर भैरवी, कामेश्वरी भैरवी, षटकुटा भैरवी, नित्याभैरवी, रुद्रभैरवी, भद्र भैरवी, इत्यादि। फ़ सिद्ध भैरवीफ़ उत्तरान्वय पीठ की देवता है। त्रिपुरा भैरवी ऊर्ध्वान्वय की देवता है। नित्या भैरवी पश्चिमान्वय की देवता है। भद्र भैरवी महाविष्णु उपासिका और दक्षिणासिंहासनारूढा है। त्रिपुराभैरवी चतुर्भुजा है। भैरवी के भैरव का नाम बटुक है। इस महाविद्या और दशावतार की तुलना करने पर भैरवी एवं नृसिंह को अभिन्न माना जाता है।
'बगला का मुख्य ग्रंथ है - सांख्यायन तंत्र । यह 30 पटलों में पूर्ण है। यह ईश्वर और क्रौंच भेदन का संबंद्ध रूप है। इस तंत्र को षट् विद्यागम कहा जाता है। बगलाक्रम कल्पवल्ली नाम से यह ग्रंथ मिलता है जिसमें देवी के उद्भव का वर्णन हुआ है। प्रसिद्धि है कि सतयुग में चारचर जगत् के विनाश के लिये जब वातीक्षीम हुआ था उस समय भगवान् तपस्या करते हुए त्रिपुरा देवी की स्तुति करने लगे। देवी प्रसन्न होकर सौराष्ट्र देश में वीर रात्रि के दिन माघ मास में चतुर्दशी तिथि की प्रकट हुई थीं। इस वगलादेवी को त्रैलोक्य स्तंभिनी विद्या जाता है।
घूमवती के विषय में विशेष व्यापक साहित्य नहीं है। इनके भैरव का नाम कालभैरव है। किसी किसी मत में घूमवती के विधवा होने के कारण उनका कोई भैरव नहीं है। वे अक्ष्य तृतीया को प्रदीप काल में प्रकट हुई थीं। वे उत्तरान्वय की देवता हैं। अवतारों में वामन का धूमवती से तादात्म्य है। धूमवती के ध्यान से पता चलता है कि वे काकध्वज रथ में आरूढ़ हैं। हस्त में शुल्प (सूप) हैं। मुख सूत पिपासाकातर है। उच्चाटन के समय देवी का आवाहन किया जाता है। फ़ प्राणातोषिनीफ़ ग्रंथ में धूवती का आविर्भाव दर्णित हुआ है।
मातंगी का नामांतर सुमुखी है। मातंगी को उच्छिष्टचांडालिनी या महापिशाचिनी कहा जाता है। मातंगी के विभिन्न प्रकार के भेद हैं-
उच्छिष्टमातंगी, राजमांतगी, सुमुखी, वैश्यमातंगी, कर्णमातंगी, आदि। ये दक्षिण तथा पश्चिम अन्वय की देवता हैं। ब्रह्मयामल के अनुसार मातंग मुनि ने दीर्घकालीन तपस्या द्वारा देवी को कन्यारूप में प्राप्त किया था। यह भी प्रसिद्धि है कि धने वन में मातंग ऋषि तपस्या करते थे। क्रूर विभूतियों के दमन के लिये उस स्थान में त्रिपुरसुंदरी के चक्षु से एक तेज निकल पड़ा। काली उसी तेज के द्वारा श्यामल रूप धारण करके राजमातंगी रूप में प्रकट हुईं। मातंगी के भैरव का नाम सदाशिव है। मातंगी के विषय में मातंगी सपर्या , रामभट्ट का मातंगीपद्धति शिवानंद का मंत्रपद्धति है। मंत्रपद्धति सिद्धांतसिधु का एक अध्याय है। काशीवासी शंकर नामक एक सिद्ध उपासक सुमुखी पूजापद्धति के रचयिता थे। शंकर सुंदरानंद नाथ के शिष्य (छठी पीढ़ी में) प्रसिद्ध विद्यारणय स्वामी की शिष्यपरंपरा में थे।
1. काली (भैरव; महाकाल) के नाना प्रकार के भेद हैं, जैसे, दक्षिणाकाली, भद्रकाली। काली दक्षिणान्वय की देवता हैं। श्यमशान काली उत्तरान्वय की देवता हैं। इसके अतिरिक्त कामकला काली, धन-काली, सिद्धकाली, चंडीकाली प्रभृति काली के भेद भी हैं।
2. महाकाली के कई नाम प्रसिद्ध हैं। नारद , पांचरात्र , आदि ग्रंथों से पता चलता है कि विश्वामित्र ने काली के अनुग्रह से ही ब्रह्मण्य-लाभ किया था। काली के विषय में 'शक्तिसंगम तंत्र' के अनुसार काली और त्रिपुरा विद्या का साद्दश्य दिखाई देता है-
काली त्रिपुरा
एकाक्षरी बाला
सिद्धकाली पंचदशी
दक्षिणाकाली षोडशी
कामकला काली पराप्रसाद
हंसकाली चरणदीक्षा
गुह्मकाली षट्संभव परमेंश्वरी
दस महाविद्यायों में 'संमोहन तंत्र' के अनुसार ये भेद हैं -
वाममार्गी दक्षिणमार्गी
छित्रा बाला, कमला
सुमुखी भुवनेश्वरी, लक्ष्मी, तारा, बगला, सुंदरी, तथा राजमातंगी।
काली के विषय में कुछ प्रसिद्ध तंत्र ग्रंथों के नाम इस प्रकार हैं-
1. महाकाल संहिता, (50 सहस्रश्लोकात्मक अथवा अधिक)
2. परातंत्र (यह काली विष्यक प्राचीन तंत्र ग्रंथ है। इसमें चार पटल हैं, एक ही महाशक्ति पÏट्सहानारूढा षडान्वया देवी हैं। इस ग्रंथ के अनुसार पूर्वान्वय की अधिष्ठातृ देवी पूर्णोश्वरी, दक्षिणान्वय की विश्वेश्वरी, पूर्वान्य की कुब्जिका, उत्तरान्वय की काली, ऊद्र्धान्वय की श्रीविद्या।)
3. काली यामल; 4. कुमारी तंत्र; 5. काली सुधानिध; 6. कालिका मत; 9. काली कल्पलता; 8. काली कुलार्णव; 5. काली सार; 10 कालीतंत्र; 11. कालिका कुलसद्भाव; 13. कालीतंत्र; 14. । 15. कालज्ञान और कालज्ञान के परिशिष्टरूप में कालोत्तर; 16. काली सूक्त; 17. कालिकोपनिषद्; 18. काली तत्व (रामभटटकृत); 19. भद्रकाली चितामणि; 20. कालीतत्व रहस्य; 21. कालीक्रम कालीकल्प या श्यामाकल्प; 22. कालीऊध्र्वान्वय; 23. कालीकुल; 24. कालीक्रम; 25. कालिकोद्भव; 26. कालीविलास तंत्र; 27. कालीकुलावलि; 28. वामकेशसंहिता; 29. काली तत्वामृत; 30. कालिकार्चामुकुर; 31. काली या श्यामारहस्य (श्रीनिवास कृत); 33. कालिकाक्रम; 34. कालिका ह्रदय; 35. काली खंड (शक्तिसंगम तंत्र का);36. काली-कुलामृत; 37. कालिकोपनिषद् सार; 38. काली कुल क्रमार्चन (विमल बोध कृत); 39. काली सपर्याविधि (काशीनाथ तर्कालंकार भट्टाचार्य कृत); 40. काली तंत्र सुधसिंधु (काली प्रसाद कृत); 41. कुलमुक्ति कल्लोलिनी (अव्दानंद कृत); 24. काली शाबर; 43. कौलावली; 44. कालीसार; 45. कालिकार्चन दीपिका (लगदानंद कृत); 46. श्यामर्चन तरंगिणी (विश्वनाथ कृत); 47. कुल प्रकाश; 48. काली तत्वामृत (बलभद्र कृत); 49. काली भक्ति रसायन (काशीनाथ भट्ट कृत); 50. कालीकुल सर्वस्व; 51. काली सुधानिधि; 52. कालिकोद्रव (?); 53. कालीकुलार्णव; 54. कालिकाकुल सर्वस्व; 56. कालोपरा; 57. कालिकार्चन चंद्रिका (केशवकृत) इत्यादि।
2- तारा : तारा के विषय में निम्नलिखित तंत्र ग्रथ विशेष उल्लेखनीय हैं-
1 तारणीतंत्र; 2. तोडलतंत्र; 3- तारार्णव; 4- नील-तंत्र; 5- महानीलतंत्र; 6- नील सरस्वतीतंत्र; 7- चीलाचार; 8- तंत्ररत्न; 9- ताराशाबर तंत्र; 10- तारासुधा; 11- तारमुक्ति सुधार्णव (नरसिंह ठाकुर कृत); 12- तारकल्पलता; - (श्रीनिवास कृत) ; 13- ताराप्रदीप (लक्ष्मणभट्ट कृत) ; 14- तारासूक्त; 15- एक जटीतंत्र; 16- एकजटीकल्प; 17- महाचीनाचार क्रम (ब्रह्म यामल स्थित) 18- तारारहस्य वृति; 19- तारामुक्ति तरंगिणी (काशीनाथ कृत); 20- तारामुक्ति तरंगिणी (प्रकाशनंद कृत); 21- तारामुक्ति तरंगिणी (विमलानंद कृत); 22- महाग्रतारातंत्र; 23- एकवीरतंत्र; 24- तारणीनिर्णय; 25- ताराकल्पलता पद्धति (नित्यानंद कृत); 26- तारिणीपारिजात (विद्वत् उपाध्याय कृत); 27- तारासहस्स्र नाम (अभेदचिंतामणिनामक टीका सहित); 28- ताराकुलपुरुष; 29- तारोपनिषद्; 30- ताराविलासोदय ) (वासुदेवकृत)।
'तारारहस्यवृत्ति' में शंकराचार्य ने कहा है कि वामाचार, दक्षिणाचार तथा सिद्धांताचार में सालोक्यमुक्ति संभव है। परंतु सायुज्य मुक्ति केवल कुलागम से ही प्राप्य है। इसमें और भी लिखा गया है कि तारा ही परा वग्रूपा, पूर्णाहंतामयी है। शक्तिसंगमतंत्र में भी तारा का विषय वर्णित है। रूद्रयामल के अनुसार प्रलय के अनंतर सृष्टि के पहले एक वृहद् अंड का आविर्भाव होता है। उसमें चतुर्भुज विष्णु प्रकट होते हैं जिनकी नाभि में ब्रह्मा ने विष्णु से पूछा- किसी आराधना से चतुभ्र्वेद का ज्ञान होता है। विष्णु ने कहा रूद्र से पूछो- रूद्र ने कहा मेरू के पश्चिम कुल में चोलह्द में वेदमाता नील सरस्वती का आविर्भाव हुआ। इनका निर्गम रूद्र के ऊध्र्व वस्त्र से है। यह तेजरूप से निकलकर चौलह्रद में गिर पड़ीं और नीलवर्ण धारण किया। ह्रद के भीतर अक्षोभ्य ऋषि विद्यमान थे। यह रूद्रयामल की कथा है।
1. षोडशी (श्रीविद्या) : श्रीविद्या का नामांकर है षोडशी। त्रिपुरसंुदरी, त्रिपुरा, ललिता, आदि भी उन्हीं के नाम है। इनके भैरव हैं- त्रिपुर भैरव (देव शक्ति संगमतंत्र)। महाशक्ति के अनंत नाम और अनंत रूप हैं। इनका परमरूप एक तथा अभिन्न हैं। त्रिपुरा उपासकों के सतानुसार ब्रह्म आदि देवगण त्रिपुरा के उपासक हैं। उनका परमरूप इंद्रियों तथा मन के अगोचर है। एकमात्र मुक्त पुरूष ही इनका रहस्य समझ पाते हैं। यह पूर्णाहंतारूप तथा तुरीय हैं। देवी का परमरूप वासनात्मक है, सूक्ष्मरूप मंत्रात्मक है, स्थूलरूप कर-चरणादि-विशिष्ट है। उनके उपासकों में प्रथम स्थान काम (मन्मथ) का है। यह देवी गुहय विद्या प्रवर्तक होने के कारण विश्वेश्वरी नाम से प्रसिद्ध हैं। देवी के बारह मुख और नाम प्रसिद्ध हैं। - यथा, मनु, चंद्र, कुबेर, लोपामुद्रा, मन्मथ, अगस्त्य, अग्नि, सूर्य, इंद्र, स्कंद, शिव, क्रोध भट्टारक (या दुर्वासा)। इन लोगों ने श्रीविद्या की साधना से अपने अधिकार के अनुसार पृथक् फल प्राप्त किया था।
श्रीविद्या के मुख्य 12 संप्रदाय हैं। इनमें से बहुत से संप्रदाय लुप्त हो गए है, केवल मन्मथ और कुछ अंश में लोपामुद्रा का संप्रदाय अभी जीवित है। कामराज विद्या (कादी) और पंचदशवर्णात्मक तंत्र राज, और त्रिपुरउपनिषद के समान लोपामुद्रा विद्या आदि भी पंचदशवर्णात्मक हैं। कामेश्वर अंकस्थित कामेश्वरी की पूजा के अवसर पर इस विद्या का उपयोग होता हैद्य लोपामुद्रा अगस्त की धर्मपत्नी थीं। वह विदर्भराज की कन्या थीं। पिता के घर में रहने के समय पराशक्ति के प्रति भक्तिसंपन्न हुई थीं। त्रिपुरा की मुख्य शक्ति भगमालिनी है। लोपामुद्रा के पिता भगमालिनी के उपासक थे। लोपामुद्रा बाल्यकाल से पिता की सेवा करती थी। उन्होंने पिता की उपासना देखकर भगमालिनी की उपासना प्रारंभ कर दी। देवी ने प्रसन्न होकर जगन्माता की पदसेवा का अधिकार उन्हें दिया थाद्य त्रिपुरा विद्या का उद्धार करने पर उनके नाम से लोपामुद्रा ने ऋषित्व प्राप्त कियाद्। अगस्त्य वैदिक ऋषि थे। बाद में अपनी भार्या से उन्होंने दीक्षा ली।
दुर्वासा का संप्रदाय भी प्राय: लुप्त ही है। श्रीविद्या, शक्ति चक्र सम्राज्ञी है और ब्रह्मविद्या स्वरूपा है। यही आत्मशक्ति है। ऐसी प्रसिद्धि है कि -
यत्रास्ति भोगो न च तत्र मोझो;
यत्रास्ति भोगे न च तत्र भोग:।
श्रीसुंदरीसेवनतत्परानां,
भोगश्च मोक्षश्च करस्थ एव।,
अगस्त्य केवल तंत्र में ही सिद्ध नहीं थें, वे प्रसिद्ध वैदिक मंत्रों के द्रष्टा थे। श्री शंकरमठ में भी बराबर श्रीविद्या की उपासना और पूजा होती चली आ रही है।
त्रिपुरा की स्थूलमूर्ति का नाम ललिता है। ऐसी किवदंती है कि अगस्त्य तीर्थयात्रा के लिये घूमते समय जीवों के दु:ख देखकर अत्यंत द्रवित हुए थे। उन्होंने कांचीपुर में तपस्या द्वारा महाविष्णु को तुष्ट किया था। उस समय महाविष्णु ने प्रसन्न होकर उनके सामने त्रिपुरा की स्थूलमूर्ति ललिता का माहात्म्य वर्णित किरण जिस प्रसंग में भंडासुर वध प्रभृति का वर्णन था, इसका सविस्तर विवरण उनके स्वांश हयग्रीव मुनि से श्रवण करें। इसके अनंतर हयग्रीव मुनि ने अगस्त्य को भंडासुर का वृत्तांत बतलाया। इस भंडासुर ने तपस्या के प्रभाव से शिव से वर पाकर 105 ब्रह्मांडों का अधिपत्य लाभ किया था। श्रीविद्या का एक भेद कादी है, एक हे हादी और एक कहादी।
श्रीविद्या गायत्री का अत्यंत गुप्त रूप है। यह चार वेदों में भी अत्यंत गुप्त है। प्रचलित गायत्री के स्पष्ट और अस्पष्ट दोनों प्रकार हैं। इसके तीन पाद स्पष्ट है, चतुर्थ पाद अस्पष्ट है। गायत्री वेद का सार है। वेद चतुर्दश विद्याओं का सार है। इन विद्याओं से शक्ति का ज्ञान प्राप्त होता है। कादी विद्या अत्यंत गोपनीय है। इसका रहस्य गुरू के मुख से ग्रहण योग्य है। संमोहन तंत्र के अनुसार तारा, तारा का साधक, कादी तथा हादी दोनों मत से संश्लिष्ट है। हंस तारा, महा विद्या, योगेश्वरी कादियों की दृष्टि से काली, हादियों की दृष्टि से शिवसुदरी और कहादी उपासकों की दृष्टि से हंस है। श्री विद्यार्णव के अनुसार कादी मत मधुमती है। यह त्रिपुरा उपासना का प्रथम भेद है। दूसरा मत मालिनी मत (काली मत) है। कादी मत का तात्पर्य है जगत चैतन्य रूपिणी मधुमती महादेवी के साथ अभेदप्राप्ति। काली मत का स्वरूप है विश्वविग्रह मालिनी महादेवी के साथ तादात्म्य होना । दोनों मतों का विस्तृत विवरण श्रीविद्यार्णव में है।
गोड़ संप्रदाय के अनुसार श्रेष्ठ मत कादी है, परंतु कश्मीर और केरल में प्रचलित शाक्त मतों के अनुसार श्रेष्ठ मत त्रिपुरा और तारा के हैं। कादी देवता काली है। हादी उपासकों की त्रिपुरसंदरी हैं और कहादी की देवता तारा या नील सरस्वती हैं। त्रिपुरा उपनिषद् और भावनोपनिषद् कादी मत के प्रसिद्ध ग्रंथ हैं। किसी किसी के मतानुसार कौल उपनिषद् भी इसी प्रकार का है, त्रिपुरा उपनिषद् के व्याख्याकार भास्कर के अनुसार यह उपविद्या सांख्यायन आरणयक के अंतर्गत है।
हादी विद्या का प्रतिपादन त्रिपुरातापिनी उपनिषदद्य में है। प्रसिद्धि है कि दुर्वासा मुनि त्रयोदशाक्षरवाली हादी विद्या के उपासक थे। दुर्वासा रचित ललितास्तव रत्न नामक ग्रंथ बंबई से प्रकाशित हुआ है।
मैंने एक ग्रंथ दुर्वासाकृत परशंमुस्तुति देखा था, जिसका महाविभूति के बाद का प्रकरण है अंतर्जा विशेष उपचार परामर्श। दुर्वासा का एक और स्तोत्र है त्रिपुरा महिम्न स्तोत्र। उसके ऊपर नित्यानंदनाथ की टीका है। सौभाग्यहृदय स्तोत्र नाम से एक प्रसिद्ध स्तोत्र है जिसके रचयिता महार्थमंजरीकार गोरक्ष के परमगुरू हैं। योगिनी हृदय या उत्त्र चतु:शती सर्वत्र प्रसिद्ध है। पूर्व चतु:शती रामेश्वर कृत परशुराम कल्पसूत्र की वृति में है। ब्रह्मांड पुराण के उत्तरखंड में श्री विद्या के विषय में एक प्रकरण हैद्य यह अनंत, दुर्लभ, उत्तर खंड में त्रिशति अथवा ललितात्रिशति नाम से प्रसिद्ध स्तव है जिसपर शंकराचाय्र की एक टीका भी है। इसका प्रकाशन हा चुका है। नवशक्ति हृदयशास्त्र के विषय में योगिनी की दीपिका टीका में उल्लेख है।
इस प्रस्थान में सूत्रग्रंथ दो प्रसिद्ध हैं: एक अगस्त्य कृत, शक्ति सूत्र और दूसरा प्रत्यभिज्ञाहृदय नामक शक्तिसूत्र। परशुराम कृतकल्पसूत्र भी सूत्रसाहित्य के अंतर्गत है। यह त्रिपुरा उपनिषद का उपबृंहण है। ऐसी प्रसिद्धि है कि इसपर रामेश्वर की एक वृत्ति है जिसका नाम सौभाग्योदय है एवं जिसकी रचना 1753 शकाब्द में हुई थी। इसका भी प्रकाशन हो चुका है। इस कल्पसूत्र के ऊपर भास्कर राय ने रत्नालोक नाम की टीका बनाई थी। अभी यह प्रकाशित नहीं हुई है। गौड़पाद के नाम से श्रीविष्णुरत्न सूत्र प्रसिद्ध है। इसपर प्रसिद्ध शंकरारणय का व्याख्यान है। यह टीका सहित प्रकाशित हुआ है। सौभग्य भास्कर में त्रैपुर सूक्त नाम से एक सूक्त का पता चलता है। इसके अतिरिक्त एक और भी सूत्रग्रंथ बिंदु सूत्र है। भास्कर ने भावनोपनिषद भाष्य में इसका उल्लेख किया है। किसी प्राचीन गंथागार में कौल सूत्र, का एक हस्तलिखित ग्रंथ दिखाई पड़ा था जो अभी तक मुद्रित नहीं हुआ है।
स्तोत्र ग्रंथें में दुर्वासा का ललितास्तव ग्रंथ प्रसिद्ध है। इसका उल्लेख ऊपर किया गया है। गौड़पाद कृत सौभाग्योदय स्तुति आदि प्रसिद्ध ग्रंथ हैं जिनपर शंकराचार्य की टीकाएँ मिलती हैं। ऐसा कहा जाता है कि सौभाग्योदय के ऊपर लक्ष्मीधर ने भी एक टीका लिखी थी। सौभाग्योदय स्तुति की रचना के अनंतर शंकरार्चा ने सौंदर्य लहरी का निर्माण किया जो आनंदलहरी नाम से भी प्रसिद्ध है। इनके अतिरिक्त ललिता सहस्र नाम एक प्रसिद्ध ग्रंथ है जिसपर भास्कर की टीका सौभाग्य भास्कर (रचनाकाल 1729 ई0) है। ललिता सहस्रनाम के ऊपर काशीवासी पं0 काशीनाथ भट्ट की भी एक टीका थी। काशीनाथ भट्ट दीक्षा लेने पर शिवानंद के नाम से प्रसिद्ध हुए। उनकी टीका का नाम नामार्थ संदीपनी है।
श्री विद्यार्णव के अनुसार कादी या मधुमती मत के मुख्य चार ग्रंथ हैं- तंत्रराज, मातृकार्षव, योगिनीहृदय नित्याषोडशार्णव और वामकेश्वर वस्तुत: पृथक ग्रंथ नहीं हैं, एक ग्रंथ के ही अंशगत भेद हैं। इसी प्रकार बहुरूपाष्टक एक पुस्तक नहीं है। यह आठ पुस्तकों की एक पुस्तक है।
तंत्रराज के पूर्वार्ध और उत्तरार्ध दो भाग हैं। 64 तंत्रों के विषय जहाँ सौंदर्यलहरी में आए हैं उस स्थल में इस विषय में चर्चा की गई है जिससे पता चलता है कि (विशेषत: लक्ष्मीघर की टीका में) मतांतर तंत्र राजटीका मनोरमा का मत प्रतीत होता है।
भास्कर राय ने सेतुबंध में भी आलोचना प्रस्तुत की है। तंत्र राज में जो नित्याहृदय की बात कही गयी है वह वस्तुत: योगिनीहृदय का ही नामांतर है। यह वामकेश्वर तंत्र का उत्तरार्ध है। नित्याहृदय इत्येतत् तंत्रोत्तरार्धस्य योगिनी हृदयस्य संज्ञा।
ऐसा प्रतीत होता है कि दो मतों के कारण दो विभाग हैं। वर्णसम और मंत्रसम के नाम पर ये नाम है। क, ह, ये महामंत्र उत्त्रान्वय के हैं। ककार से ब्रह्मरूपता है। यह कादी मत है। हकार से शिवरूपता, हादी मत है। कादी मत, काली मत और हादी मत सुंदरी मत हैं। दोनों मिलकर कहादी मत होता है। सुंदरी में प्रपंच है। जो सुंदरी से भिन्न है उसमें प्रपंच नहीं है। सौंदर्य सवदर्शन है। ब्रह्मसंदर्शन का अर्थ है असौंदर्य का दर्शन। 58 पटल में है कि भगवती सुंदरी कहती हैं- अहं प्रपंचभूताऽस्मि, सा तु निर्णुणारूपिणी (शक्ति संगमतंत्र, अध्याय 58)। कोई कोई कहते हैं कि कादी, हादी और कहादी आदि भेदों से तंत्रराज के कई भेद हैं। योगिनीहृदय सुप्रसिद्ध ग्रंथ है। यह वामकेश्वर तंत्र का उत्तर चतु:शती है। भास्कर राय ने भावनोपनिषद के भाष्य में कहा है कि यह कादी मतानुयायी ग्रंथ है। तंत्रराज की टीका मनोरमा में भी यही बात मिलती है परंतु बरिबास्य रहस्य में है कि इसकी हादी मतानुकृल व्याख्या भी वर्तमान है। योगिनी हृदय ही नित्याहृदय के नाम से प्रसिद्ध है।
श्रीविद्या विषयक कुछ ग्रंथ ये हैं-
1. तंत्रराज- इसकी बहुत टीकाएँ हैं। सुभगानंदनाथ कृत मनोरमा मुख्य है। इसपर प्रेमनिधि की सुदर्शिनी नामक टीका भी है। भाष्स्कर की और शिवराम की टीकाएँ भी मिलती हैं।
2. तंत्रराजोत्तर
3. परानंद या परमानंद तंत्र - किसी किसी के अनुसार यह श्रीविद्या का मुख्य उपासनाग्रंथ है। इसपर सुभगानंद की सुभगानंद संदोह नाम्नी टीका थ। कल्पसूत्र वृत्ति से मालूम होता है कि इसपर और भी टीकाएँ थी।
4. सौभाग्य कल्पद्रुम परमानंद के अनुसार यह श्रेक्ष्ठ ग्रंथ है।
5. सौभाग्य कल्पलतिका क्षेमानंद कृत।
6. वामकेश्वर तंत्र (पूर्वचतु:शती और उत्तर चतु:शती) इसपर भास्कर की सेतुबंध टीका प्रसिद्ध है। जयद्रथ कृत वामकेश्वर विवरण भी है।
7. ज्ञानार्णव- यह 26 पटल में है।
8-9. श्री क्रम संहिता तथा वृहद श्री क्रम संहिता।
10. दक्षिणामूर्त्ति संहिता - यह 66 पटल में है।
11. स्वच्छंद तंत्र अथवा स्वच्छंद संग्रह।
12. कालात्तर वासना सौभाग्य कल्पद्रुप में इसकी चर्चा आई है।
13. त्रिपुरार्णव। 14. श्रीपराक्रम: इसका उल्लेख योगिनी-हृदय-दीपका में है।
15. ललितार्चन चंद्रिका - यह 17 अध्याय में है।
16. सौभाग्य तंत्रोत्तर। 17. मातृकार्णव
18. सौभाग्य रत्नाकर: (विद्यानंदनाथ कृत)
19. सौभाग्य सुभगोदय - (अमृतानंदनाथ कृत)
20. शक्तिसंगम तंत्र- (सुंदरी खंड)
21. त्रिपुरा रहस्य - (ज्ञान तथा माहात्म्य खंड)
22. श्रीक्रमात्तम - (निजपकाशानंद मल्लिकार्जुन योगींद्र कृत)
23. अज्ञात अवतार - इसका उल्लेख योगिनी हृदय दीपिका में हैं।
24-25. सुभगार्चापारिजात, सुभगार्चारत्न: सौभाग्य भास्कर में इनका उल्लेख है।
26. चंद्रपीठ
27. संकेतपादुका
28. सुंदरीमहोदय - शंकरानंदनाथा कृत
29. हृदयामृत- (उमानंदनाथ कृत)
30. लक्ष्मीतंत्र: इसें त्रिपुरा माहात्म्य है।
31. ललितोपाख्यान - यह ब्रह्मांड पुराण के उत्तरखंड में है।
32. त्रिपुरासार समुच्चय (लालूभट्ट कृत) 33. श्री तत्वचिंतामणि (पूर्णानंदकृत)
34. विरूपाक्ष पंचाशिका 35. कामकला विलास 36. श्री विद्यार्णव
37. शाक्त क्रम (पूर्णानंदकृत)
38. ललिता स्वच्छंद
39. ललिताविलास
40. प्रपंचसार (शंकराचार्य कृत)
41. सौभाग्यचंद्रोदय (भास्कर कृत)
42. बरिबास्य रहस्य: (भास्कर कृत)
43. बरिबास्य प्रकाश (भास्कर कृत)
44. त्रिपुरासार
45. सौभाग्य सुभगोदय: विद्यानंद नाथ कृत
46. संकेत पद्धति
47. परापूजाक्रम
48. चिदंबर नट।
तंत्रराज (कादीमत) में एक श्लोक इस प्रकार है- नित्यानां शोडषानां च नवतंत्राणिकृत्स्नस:। सुभगानंद नाथ ने अपनी मनोरमा टीका में कहा है- इस प्रसंग में नवतंत्र का अर्थ है- सुंदरीहृदय। चंद्रज्ञान, मातृकातंत्र, संमोहनतंत्र, मावकेश्वर तंत्र, बहुरूपाष्टक, प्रस्तारचिंतामणि के समान इसे समझना चाहिए। इस स्थल में सुंदरीहृदय का योगिनीह्रदय से तादात्म्य है। वामकेश्वर आदि तंत्रग्रंथों का पृथक् पृथक् उल्लेख भी हुआ है। नित्याषोडशार्णव में पृथक् रूप से इसका उल्लेख किया गया है, परंतु अन्य नित्यातंत्रों के भीतर प्रसिद्ध श्रीक्रमसंहिता और ज्ञानार्णव के उल्लेख नहीं है।
दस महाविद्या: इस महाविद्याओं में पहली त्रिशक्तियों का प्रतिष्ठान जिन ग्रंथों में है उनमें से संक्षेप में कुछ ग्रंथों के नाम ऊपर दिए गए हैं। भुवनेश्वरी के विषय में भुवनेश्वरी रहस्य मुख्य ग्रंथ है। यह 26 पटलों में पूर्ण है। पृथ्वीधराचार्य का भुवनेश्वरी अर्चन पद्धति एक उत्कृष्ट ग्रंथ है। ये पृश्रवीधर गांविंदपाद के शिष्य शंकराचार्य के शिष्य रूप से परिचित हैं। भुवनेश्वरीतंत्र नाम से एक मूल तंत्रग्रंथ भी मिलता हैं। इसी प्रकार राजस्थान पुरात्तत्व ग्रथमाला में पृथ्वीधर का भुवनेश्वरी महास्तोत्र मुद्रित हुआ है।
भैरवी के विषय में भैरवीतंत्र' प्रधान ग्रंथ है। यह प्राचीन ग्रंथ है। इसके अतिरिक्त भैरवीरहस्य , भैरवी सपयाविधि आदि ग्रंथ भी मिलते हैं। पुरश्चर्यार्णव नामक ग्रंथ में भैरवी यामल का उल्लेख है।
भैरवी के नाना प्रकार के भेद हैं- जैसे, सिद्ध भैरवी, त्रिपुरा भैरवी, चैतन्य भैरवी, भुवनेश्वर भैरवी, कमलेश्वरी भैरवी, संपदाप्रद भैरवी, कौलेश्वर भैरवी, कामेश्वरी भैरवी, षटकुटा भैरवी, नित्याभैरवी, रुद्रभैरवी, भद्र भैरवी, इत्यादि। फ़ सिद्ध भैरवीफ़ उत्तरान्वय पीठ की देवता है। त्रिपुरा भैरवी ऊर्ध्वान्वय की देवता है। नित्या भैरवी पश्चिमान्वय की देवता है। भद्र भैरवी महाविष्णु उपासिका और दक्षिणासिंहासनारूढा है। त्रिपुराभैरवी चतुर्भुजा है। भैरवी के भैरव का नाम बटुक है। इस महाविद्या और दशावतार की तुलना करने पर भैरवी एवं नृसिंह को अभिन्न माना जाता है।
'बगला का मुख्य ग्रंथ है - सांख्यायन तंत्र । यह 30 पटलों में पूर्ण है। यह ईश्वर और क्रौंच भेदन का संबंद्ध रूप है। इस तंत्र को षट् विद्यागम कहा जाता है। बगलाक्रम कल्पवल्ली नाम से यह ग्रंथ मिलता है जिसमें देवी के उद्भव का वर्णन हुआ है। प्रसिद्धि है कि सतयुग में चारचर जगत् के विनाश के लिये जब वातीक्षीम हुआ था उस समय भगवान् तपस्या करते हुए त्रिपुरा देवी की स्तुति करने लगे। देवी प्रसन्न होकर सौराष्ट्र देश में वीर रात्रि के दिन माघ मास में चतुर्दशी तिथि की प्रकट हुई थीं। इस वगलादेवी को त्रैलोक्य स्तंभिनी विद्या जाता है।
घूमवती के विषय में विशेष व्यापक साहित्य नहीं है। इनके भैरव का नाम कालभैरव है। किसी किसी मत में घूमवती के विधवा होने के कारण उनका कोई भैरव नहीं है। वे अक्ष्य तृतीया को प्रदीप काल में प्रकट हुई थीं। वे उत्तरान्वय की देवता हैं। अवतारों में वामन का धूमवती से तादात्म्य है। धूमवती के ध्यान से पता चलता है कि वे काकध्वज रथ में आरूढ़ हैं। हस्त में शुल्प (सूप) हैं। मुख सूत पिपासाकातर है। उच्चाटन के समय देवी का आवाहन किया जाता है। फ़ प्राणातोषिनीफ़ ग्रंथ में धूवती का आविर्भाव दर्णित हुआ है।
मातंगी का नामांतर सुमुखी है। मातंगी को उच्छिष्टचांडालिनी या महापिशाचिनी कहा जाता है। मातंगी के विभिन्न प्रकार के भेद हैं-
उच्छिष्टमातंगी, राजमांतगी, सुमुखी, वैश्यमातंगी, कर्णमातंगी, आदि। ये दक्षिण तथा पश्चिम अन्वय की देवता हैं। ब्रह्मयामल के अनुसार मातंग मुनि ने दीर्घकालीन तपस्या द्वारा देवी को कन्यारूप में प्राप्त किया था। यह भी प्रसिद्धि है कि धने वन में मातंग ऋषि तपस्या करते थे। क्रूर विभूतियों के दमन के लिये उस स्थान में त्रिपुरसुंदरी के चक्षु से एक तेज निकल पड़ा। काली उसी तेज के द्वारा श्यामल रूप धारण करके राजमातंगी रूप में प्रकट हुईं। मातंगी के भैरव का नाम सदाशिव है। मातंगी के विषय में मातंगी सपर्या , रामभट्ट का मातंगीपद्धति शिवानंद का मंत्रपद्धति है। मंत्रपद्धति सिद्धांतसिधु का एक अध्याय है। काशीवासी शंकर नामक एक सिद्ध उपासक सुमुखी पूजापद्धति के रचयिता थे। शंकर सुंदरानंद नाथ के शिष्य (छठी पीढ़ी में) प्रसिद्ध विद्यारणय स्वामी की शिष्यपरंपरा में थे।
श्री गणेशाय नमः
श्रीजानकीवल्लभो विजयते
सुन्दरकाण्ड
श्रीजानकीवल्लभो विजयते
सुन्दरकाण्ड
श्लोक
शान्तं शाश्वतमप्रमेयमनघं निर्वाणशान्तिप्रदं
ब्रह्माशम्भुफ़णीन्द्रसेव्यमनिशं वेदान्तवेद्यं विभुम् ।
रामाख्यं जगदीश्वरं सुरगुरूं मायामनुष्यं हरिं
वन्देऽहं करूणाकरं रघुवरं भूपालचूडामणिम् ।। 1 ।।
नान्या स्पृहा रघुपते हृदयेऽ स्मदीये
सत्यं वदामि च भवानखिलान्तरात्मा ।
भक्तिं प्रयच्छ रघुपुंग्ङव निर्भरां मे
कामादिदोषरहितं कुरू मानसं च ।। 2 ।।
अतुलितबलधमं हेमशैलाभदेहं
दनुजवनकृशानुं ज्ञानिनामग्रगण्यम् ।
सकलगुणानिधानं वानराणामधीशं
रघुपतिप्रियभक्तं वातजातं नमामि. ।। 3 ।।
जामवंत के बचन सुहाए । सुनि हनुमंत हृदय अति भाए ।।
तब लगि मोहि परिखेहु तुम्ह भाई । सहि दुख कंद मूल फ़ल खाई ।।
जब लगि आवौं सीतहि देखी । होइहि काजु मोहि हरष बिसेषी ।।
यह कहि नाइ सबन्हि कहुँ माथा । चलेउ हियँ धरि रघुनाथा ।।
सिंधु तीर एक भूधर सुंदर । कौतुक कूदि चढ़ेउ ता ऊपर ।।
बार बार रघुबीर सँभारी । तरकेउ पवनतनय बल भारी ।।
जेहिं गिरि चरन देइ हनुमंता । चलेउ सो गा पाताल तुरंता ।।
जिमि अमोघ रघुपति कर बाना । एही भाँति चलेउ हनुमाना ।।
जलनिधि रघुपति दूत बिचारी । तैं मैनाक होहि श्रमहारी ।।
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रामाख्यं जगदीश्वरं सुरगुरूं मायामनुष्यं हरिं
वन्देऽहं करूणाकरं रघुवरं भूपालचूडामणिम् ।। 1 ।।
नान्या स्पृहा रघुपते हृदयेऽ स्मदीये
सत्यं वदामि च भवानखिलान्तरात्मा ।
भक्तिं प्रयच्छ रघुपुंग्ङव निर्भरां मे
कामादिदोषरहितं कुरू मानसं च ।। 2 ।।
अतुलितबलधमं हेमशैलाभदेहं
दनुजवनकृशानुं ज्ञानिनामग्रगण्यम् ।
सकलगुणानिधानं वानराणामधीशं
रघुपतिप्रियभक्तं वातजातं नमामि. ।। 3 ।।
जामवंत के बचन सुहाए । सुनि हनुमंत हृदय अति भाए ।।
तब लगि मोहि परिखेहु तुम्ह भाई । सहि दुख कंद मूल फ़ल खाई ।।
जब लगि आवौं सीतहि देखी । होइहि काजु मोहि हरष बिसेषी ।।
यह कहि नाइ सबन्हि कहुँ माथा । चलेउ हियँ धरि रघुनाथा ।।
सिंधु तीर एक भूधर सुंदर । कौतुक कूदि चढ़ेउ ता ऊपर ।।
बार बार रघुबीर सँभारी । तरकेउ पवनतनय बल भारी ।।
जेहिं गिरि चरन देइ हनुमंता । चलेउ सो गा पाताल तुरंता ।।
जिमि अमोघ रघुपति कर बाना । एही भाँति चलेउ हनुमाना ।।
जलनिधि रघुपति दूत बिचारी । तैं मैनाक होहि श्रमहारी ।।
श्री गणेशाय नमः
श्रीजानकीवल्लभो विजयते
सुन्दरकाण्ड
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शान्तं शाश्वतमप्रमेयमनघं निर्वाणशान्तिप्रदं
ब्रह्माशम्भुफ़णीन्द्रसेव्यमनिशं वेदान्तवेद्यं विभुम् ।
रामाख्यं जगदीश्वरं सुरगुरूं मायामनुष्यं हरिं
वन्देऽहं करूणाकरं रघुवरं भूपालचूडामणिम् ।। 1 ।।
नान्या स्पृहा रघुपते हृदयेऽ स्मदीये
सत्यं वदामि च भवानखिलान्तरात्मा ।
भक्तिं प्रयच्छ रघुपुंग्ङव निर्भरां मे
कामादिदोषरहितं कुरू मानसं च ।। 2 ।।
अतुलितबलधमं हेमशैलाभदेहं
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जामवंत के बचन सुहाए । सुनि हनुमंत हृदय अति भाए ।।
तब लगि मोहि परिखेहु तुम्ह भाई । सहि दुख कंद मूल फ़ल खाई ।।
जब लगि आवौं सीतहि देखी । होइहि काजु मोहि हरष बिसेषी ।।
यह कहि नाइ सबन्हि कहुँ माथा । चलेउ हियँ धरि रघुनाथा ।।
सिंधु तीर एक भूधर सुंदर । कौतुक कूदि चढ़ेउ ता ऊपर ।।
बार बार रघुबीर सँभारी । तरकेउ पवनतनय बल भारी ।।
जेहिं गिरि चरन देइ हनुमंता । चलेउ सो गा पाताल तुरंता ।।
जिमि अमोघ रघुपति कर बाना । एही भाँति चलेउ हनुमाना ।।
जलनिधि रघुपति दूत बिचारी । तैं मैनाक होहि श्रमहारी ।।
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रामाख्यं जगदीश्वरं सुरगुरूं मायामनुष्यं हरिं
वन्देऽहं करूणाकरं रघुवरं भूपालचूडामणिम् ।। 1 ।।
नान्या स्पृहा रघुपते हृदयेऽ स्मदीये
सत्यं वदामि च भवानखिलान्तरात्मा ।
भक्तिं प्रयच्छ रघुपुंग्ङव निर्भरां मे
कामादिदोषरहितं कुरू मानसं च ।। 2 ।।
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जामवंत के बचन सुहाए । सुनि हनुमंत हृदय अति भाए ।।
तब लगि मोहि परिखेहु तुम्ह भाई । सहि दुख कंद मूल फ़ल खाई ।।
जब लगि आवौं सीतहि देखी । होइहि काजु मोहि हरष बिसेषी ।।
यह कहि नाइ सबन्हि कहुँ माथा । चलेउ हियँ धरि रघुनाथा ।।
सिंधु तीर एक भूधर सुंदर । कौतुक कूदि चढ़ेउ ता ऊपर ।।
बार बार रघुबीर सँभारी । तरकेउ पवनतनय बल भारी ।।
जेहिं गिरि चरन देइ हनुमंता । चलेउ सो गा पाताल तुरंता ।।
जिमि अमोघ रघुपति कर बाना । एही भाँति चलेउ हनुमाना ।।
जलनिधि रघुपति दूत बिचारी । तैं मैनाक होहि श्रमहारी ।।
श्री गणेशाय नमः
श्रीजानकीवल्लभो विजयते
सुन्दरकाण्ड
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शान्तं शाश्वतमप्रमेयमनघं निर्वाणशान्तिप्रदं
ब्रह्माशम्भुफ़णीन्द्रसेव्यमनिशं वेदान्तवेद्यं विभुम् ।
रामाख्यं जगदीश्वरं सुरगुरूं मायामनुष्यं हरिं
वन्देऽहं करूणाकरं रघुवरं भूपालचूडामणिम् ।। 1 ।।
नान्या स्पृहा रघुपते हृदयेऽ स्मदीये
सत्यं वदामि च भवानखिलान्तरात्मा ।
भक्तिं प्रयच्छ रघुपुंग्ङव निर्भरां मे
कामादिदोषरहितं कुरू मानसं च ।। 2 ।।
अतुलितबलधमं हेमशैलाभदेहं
दनुजवनकृशानुं ज्ञानिनामग्रगण्यम् ।
सकलगुणानिधानं वानराणामधीशं
रघुपतिप्रियभक्तं वातजातं नमामि. ।। 3 ।।
जामवंत के बचन सुहाए । सुनि हनुमंत हृदय अति भाए ।।
तब लगि मोहि परिखेहु तुम्ह भाई । सहि दुख कंद मूल फ़ल खाई ।।
जब लगि आवौं सीतहि देखी । होइहि काजु मोहि हरष बिसेषी ।।
यह कहि नाइ सबन्हि कहुँ माथा । चलेउ हियँ धरि रघुनाथा ।।
सिंधु तीर एक भूधर सुंदर । कौतुक कूदि चढ़ेउ ता ऊपर ।।
बार बार रघुबीर सँभारी । तरकेउ पवनतनय बल भारी ।।
जेहिं गिरि चरन देइ हनुमंता । चलेउ सो गा पाताल तुरंता ।।
जिमि अमोघ रघुपति कर बाना । एही भाँति चलेउ हनुमाना ।।
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वन्देऽहं करूणाकरं रघुवरं भूपालचूडामणिम् ।। 1 ।।
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भक्तिं प्रयच्छ रघुपुंग्ङव निर्भरां मे
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अतुलितबलधमं हेमशैलाभदेहं
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जामवंत के बचन सुहाए । सुनि हनुमंत हृदय अति भाए ।।
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सिंधु तीर एक भूधर सुंदर । कौतुक कूदि चढ़ेउ ता ऊपर ।।
बार बार रघुबीर सँभारी । तरकेउ पवनतनय बल भारी ।।
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त्रिदेव का स्वरूप हैं दत्तात्रेय
त्रिदेव का स्वरूप हैं दत्तात्रेय
धर्मयात्रा की इस बार की कड़ी में हम आपको ले चलते हैं इंदौर
के भगवान दत्तात्रेय के मंदिर में। भगवान दत्त को ब्रह्मा, विष्णु, महेश
तीनों का स्वरूप माना जाता है। दत्तात्रेय में ईश्वर और गुरु दोनों रूप
समाहित हैं, इसीलिए उन्हें श्री गुरुदेवदत्त के नाम से भी पुकारा जाता है।
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इंदौर
स्थित भगवान दत्तात्रेय का मंदिर करीब 700 साल पुराना है और कृष्णपुरा की
ऐतिहासिक छत्रियों के पास स्थित है। इंदौर होलकर राजवंश की राजधानी रहा है।
होलकर राजवंश के संस्थापक सूबेदार मल्हारराव होलकर के आगमन के भी कई वर्ष
पहले से दत्तात्रेय मंदिर की स्थापना हो चुकी थी। जगद्गुरु शंकराचार्य
सहित कई साधु-संत पुण्य नगरी अवंतिका (वर्तमान में उज्जैन) जाने से पहले
अपने अखाड़े के साथ इसी मंदिर के परिसर में रुका करते थे।
जब श्री गुरुनानकजी मध्य
क्षेत्र के प्रवास पर थे तब वे इमली साहब नामक पवित्र गुरुस्थल पर तीन माह
तक रुके थे और प्रत्येक दिन नदी के इस संगम पर आया करते थे और दत्त मंदिर
के साधु-संन्यासियों से धर्मचर्चा किया करते थे। कहा
जाता है कि भगवान दत्त की निर्मिती भारतीय संस्कृति के इतिहास का अद्भुत
चमत्कार है। भक्तों द्वारा अचानक आकर मदद करने वाली शक्ति को दत्त के रूप
में पूजा जाता है और मार्गशीर्ष की पूर्णिमा पर दत्त जयंती का उत्सव धूमधाम
से मनाया जाता है।
गुरुदेव
के भक्तों की आराधना में गुरुचरित्र पाठ का अलग ही महत्व है। इसके कुल 52
अध्याय में कुल 7491 पंक्तियाँ हैं। कुछ लोग साल में केवल एक बार ही इसे एक
दिन में या तीन दिन में पढ़ते हैं जबकि अधिकांश लोग दत्त जयंती पर
मार्गशीर्ष शुद्ध 7 से मार्गशीर्ष 14 तक पढ़कर पूरा करते हैं। गुरुदेव के
भक्त उनका महामंत्र दिगंबरा-दिगंबरा श्रीपाद वल्लभ दिगंबरा का जाप करते हुए
सदैव भक्ति में लीन रहते हैं।
|
शैव, वैष्णव और शाक्त तीनों ही संप्रदायों को एकजुट करने वाले श्री दत्तात्रेय का प्रभाव महाराष्ट्र में ही नहीं, वरन विश्वभर में फैला हुआ है। गुरुदेव दत्तात्रेय में नाथ संप्रदाय, महानुभाव संप्रदाय, वारकरी संप्रदाय और समर्थ संप्रदाय की अगाध श्रद्धा है। दत्त संप्रदाय में हिन्दुओं के ही बराबर मुसलमान भक्त भी बड़ी संख्या में शामिल हैं, जो कि हमारी धर्मनिरपेक्ष संस्कृति का परिचायक है।
|
वायुमार्ग: इंदौर को मध्यप्रदेश की व्यावसायिक राजधानी माना जाता है जहाँ अहिल्याबाई एयरपोर्ट स्थित है।
रेलमार्ग: इंदौर जंक्शन होने के कारण यहाँ रेलमार्ग द्वारा पहुँचना बहुत ही आसान है।
सड़क मार्ग: यह देश के प्रमुख राष्ट्रीय राजमार्ग (आगरा-मुंबई) से जुड़ा हुआ है। देश के किसी भी हिस्से से यहाँ सड़क मार्ग से आसानी से पहुँचने के बाद ऑटो से भगवान दत्तात्रेय मंदिर पहुँच सकते हैं।
कुंडली विवेचन आणि करिअर!!
कुंडली विवेचन आणि करिअर!!
(विनंतीवजा
सूचना: हा धागा फक्त ज्यांना ज्योतिषशास्त्राच्या अनुषंगाने चर्चा
करावयाची आहे, त्यांचेसाठीच आहे. कृपया, येथे ज्योतिष शास्त्र खरे का खोटे
ही चर्चा आणि त्यासंदर्भातली खिल्ली अपेक्षीत नाही)
(१) ज्योतिषशास्त्रात जन्मलग्न कुंडली सोबतच भावचलीत कुंडली, नवमांश कुंडली आणि राशी कुंडली यांचे महत्व काय असते? कुठली कुंडली कशासाठी बघायची असते?
(२) जन्मलग्न कुंडली मध्ये करीअर/नोकरी/जॉब चे स्थान कोणते? करीअर चांगले होण्यासाठी कोणता/कोणते ग्रह जबाबदार असतात? व ते कुठल्या स्थानी असावे लागतात?
(३) खालील ग्रहस्थिती असलेल्या कुंडलीत करीअर बद्दल काय सांगता येईल?
प्रथम स्थानः मीन - शुक्र; द्वितीयः मेष - केतू; तृतीय: वृषभ - गुरु, चंद्र.
चतुर्थ: मिथुन रास, ग्रह नाही; पंचमः कर्क - शनी; सहावे: सिंह रास, ग्रह नाही.
सातवे: कन्या रास, प्लुटो; आठवे: तूळ रास, हर्षल, राहू; नववे: वृश्चिक रास, नेपच्यून;
दहावे: धनू रास, ग्रह नाही; अकरावे: मकर रास, मंगळ; बारावे: कुंभ रास, सूर्य, बुध
(४) तसेच ढोबळमानाने खालील निष्कर्ष बरोबर आहे का? चुकले असल्यास बरोबर काय ते सांगावे.(येथे मी सहा, आठ आणि बारा ही वाईट स्थाने गृहित धरली आहेत)
चांगले स्थान - चांगला ग्रह (उच्चीचा/स्वराशी) असणे चांगले
चांगले स्थान - चांगला ग्रह (नीचीचा/निर्बली) असणे वाईट
चांगले स्थान - वाईट ग्रह (उच्चीचा/स्वराशी) असणे चांगले
चांगले स्थान - वाईट ग्रह (नीचीचा/निर्बली) असणे वाईट
वाईट स्थान - चांगला ग्रह (उच्चीचा/स्वराशी) असणे वाईट
वाईट स्थान - चांगला ग्रह (नीचीचा/निर्बली) असणे चांगले
वाईट स्थान - वाईट ग्रह (उच्चीचा/स्वराशी) असणे चांगले
वाईट स्थान - वाईट ग्रह (नीचीचा/निर्बली) असणे वाईट
ज्योतिष जाणकारांनी चर्चेत भाग घ्यावा, ही विनंती.
(१) ज्योतिषशास्त्रात जन्मलग्न कुंडली सोबतच भावचलीत कुंडली, नवमांश कुंडली आणि राशी कुंडली यांचे महत्व काय असते? कुठली कुंडली कशासाठी बघायची असते?
(२) जन्मलग्न कुंडली मध्ये करीअर/नोकरी/जॉब चे स्थान कोणते? करीअर चांगले होण्यासाठी कोणता/कोणते ग्रह जबाबदार असतात? व ते कुठल्या स्थानी असावे लागतात?
(३) खालील ग्रहस्थिती असलेल्या कुंडलीत करीअर बद्दल काय सांगता येईल?
प्रथम स्थानः मीन - शुक्र; द्वितीयः मेष - केतू; तृतीय: वृषभ - गुरु, चंद्र.
चतुर्थ: मिथुन रास, ग्रह नाही; पंचमः कर्क - शनी; सहावे: सिंह रास, ग्रह नाही.
सातवे: कन्या रास, प्लुटो; आठवे: तूळ रास, हर्षल, राहू; नववे: वृश्चिक रास, नेपच्यून;
दहावे: धनू रास, ग्रह नाही; अकरावे: मकर रास, मंगळ; बारावे: कुंभ रास, सूर्य, बुध
(४) तसेच ढोबळमानाने खालील निष्कर्ष बरोबर आहे का? चुकले असल्यास बरोबर काय ते सांगावे.(येथे मी सहा, आठ आणि बारा ही वाईट स्थाने गृहित धरली आहेत)
चांगले स्थान - चांगला ग्रह (उच्चीचा/स्वराशी) असणे चांगले
चांगले स्थान - चांगला ग्रह (नीचीचा/निर्बली) असणे वाईट
चांगले स्थान - वाईट ग्रह (उच्चीचा/स्वराशी) असणे चांगले
चांगले स्थान - वाईट ग्रह (नीचीचा/निर्बली) असणे वाईट
वाईट स्थान - चांगला ग्रह (उच्चीचा/स्वराशी) असणे वाईट
वाईट स्थान - चांगला ग्रह (नीचीचा/निर्बली) असणे चांगले
वाईट स्थान - वाईट ग्रह (उच्चीचा/स्वराशी) असणे चांगले
वाईट स्थान - वाईट ग्रह (नीचीचा/निर्बली) असणे वाईट
ज्योतिष जाणकारांनी चर्चेत भाग घ्यावा, ही विनंती.
8 जुलाई तक आप पर रहेगा वक्री शनि का प्रभाव
जैसा कि हम सभी जानते हैं कि ग्रहों का सीधा प्रभाव हमारे जीवन पर
पड़ता है। खास तौर से शनि ग्रह को लेकर हर व्यक्ति सचेत रहता है। क्योंकि
तमाम ज्योतिष शनि ग्रह से डरने की बात करते हैं। लेकिन हम आपको बता दें
कि शनि ग्रह से डरने की आवश्यकता नहीं, यह अपने अच्छे फल भी कई राशियों
पर देता है। अगर ग्रहों की वर्तमान चाल की बात करें तो न्याय के अधिष्ठाता
शनि 19 फरवरी से वक्री हो गया है। यानी एक वक्र में भ्रमण कर रहा है, जो
तुला राशि में होगा। यह 8 जुलाई 2013 तक इसी वक्र में भ्रमण करेगा। शनि की
इस चाल का प्रभाव सभी बारह राशियों पर पड़ेगा।
किन राशियों पर क्या प्रभाव पड़ेगा यह जानने से पहले हम आपको कुछ
महत्वपूर्ण बातें बतायेंगे शनि ग्रह के बारे में। धर्मग्रंथो के अनुसार
सूर्य की द्वितीय पत्नी के गर्भ से शनि देव का जन्म हुआ। जब शनि देव छाया
के गर्भ में थे तब छाया भगवन शंकर की भक्ति में इतनी ध्यान मग्न थीं की
उसने अपने खाने पिने तक सुध नहीं थी। जिसका प्रभाव उनके पुत्र पर पड़ा और
उसका वर्ण श्याम हो गया! शनि के श्यामवर्ण को देखकर सूर्य ने अपनी पत्नी
छाया पर आरोप लगाया की शनि मेरा पुत्र नहीं हैं! तभी से शनि अपने पुत्र से
शत्रु भाव रखता हैं!
पढ़ें- शरीर पर तिल में छिपे हैं कई राज़
ज्योतिषशास्त्र में शनि को अनेक नामों से सम्बोधित किया गया है, जैसे
मन्दगामी, सूर्य-पुत्र और शनिश्चर आदि। शनि के नक्षत्र हैं, पुष्य, अनुराधा
और उत्तरा भाद्रपद। यह दो राशियों मकर और कुम्भ का स्वामी है। तुला राशि
में 20 अंश पर शनि परमोच्च है और मेष राशि के 20 अंश प परमनीच है। नीलम शनि
का रत्न है। शनि की तीसरी, सातवीं और दसवीं द्रिष्टि मानी जाती है। शनि
सूर्य, चन्द्र, मंगल का शत्रु, बुध,शुक्र को मित्र तथा गुरु को सम मानता
है।
8 जुलाई तक शनि के राशियों पर प्रभाव
आपकी कुंडली और कुछ सावधानियां l
आपकी कुंडली और कुछ सावधानियां
पूजा-पाठ में तो हम पंडित से सलाह-मश्वरा ले लेते हैं, लेकिन कई अन्य
काम ऐसे होते हैं, जिनमें आप किसी से सलाह नहीं लेते और वो काम करने के बाद
तमाम परेशानियां खड़ी हो जाती हैं। वैसे यह संभव भी नहीं कि बार-बार हर
काम पंडित से पूछ कर ही किया जाये, लेकिन जरा सोचिये यदि आपको खुद अपनी
कुंडली का ज्ञान हो, तो क्या हो? आप खुद सावधानियां बरतते हुए ऐसे काम
नहीं करेंगे, जो आपके लिये नुकसानदायक हो सकते हैं।
जिन लोगों की कुंडली में जो ग्रह उच्च का हो या स्वराशि का हो, उस ग्रह की
वस्तुओं का दान नहीं करना चाहिए। इसके विपरीत ग्रह नीच या अशुभ स्थान में
हो तो इन ग्रहों की वस्तुओं का दान भी नहीं लेना चाहिए। यह बात शायद आपको
नहीं मालूम होगी, लेकिन है बड़े पते की बात।
ऐसी तमाम बातों पर आपका ध्यान आकर्षित करा रहे हैं लखनऊ के ज्योतिषाचार्य
पंडित अनुज के शुक्ला-
1- बुध यदि जन्मकुंडली में छठे भाव में स्थित है तो जातक को अपनी बेटी
या बहन का विवाह उत्तर दिशा में नहीं करना चाहिए अन्यथा पिता व पुत्री
दोनों परेशान रहते है।
2- जिस जातक की कुंडली में बुध चतुर्थ भाव में हो, उसे घर में तोता नहीं
पालना चाहिए वरना माता को कष्ट होगा।
3- मंगल पत्रिका में 12वें भाव में स्थित हो तो जातक को अपने भाईयों से
झगड़ा नहीं करना चाहिए।
4- मंगल आठवें भाव में हो तो जातक को घर में तन्दूर नहीं लगवाना चाहिए
अन्यथा पत्नी रोगिणी बनी रहेगी।
5- केतु यदि तीसरे भाव में स्थित हो तो जातक को दक्षिण दिशा वाले मकान में
नहीं रहना चाहिए अन्यथा आर्थिक व मानसिक स्थिति डांवाडोल रहती है।
6- चन्द्रमा और केतु जन्मपत्री में किसी भाव में एक साथ स्थित हो तो
व्यक्ति को किसी के पेशाब पर पेशाब नहीं करना चाहिए।
7- चन्द्रमा 11वें भाव हो तो जातक अपनी बहन या कन्या का कन्यादान प्रभात
काल में नहीं करना चाहिए वरना पिता व बेटी दोनों दुःखी रहेंगे।
8- चन्द्रमा यदि 12 वें भाव में स्थित हो तो जातक किसी पुजारी, साधु
को प्रतिदिन रोटी न खिलायें, बच्चों के लिए बिना फीस विद्या का प्रबन्ध न
करें और विद्यालय न खोलें वरना दुःखों का पहाड़ टूट पड़ेगा और पानी तक नसीब
नहीं होगा।
9- चन्द्रमा छठें भाव में हो तो दूध, पानी का दान करें एंव नल व कुआं की
मरम्मत करायें वरना परिवार में अकाल मृत्यु का भय बना रहेगा।
10- शनि कुंडली में आठवें भाव में स्थित हो तो जातक को धर्मशाला आदि नहीं
बनवाना चाहिए अन्यथा वह आर्थिक रूप से हमेशा तंग रहेगा।
11- यदि कुंडली का दूसरा भाव खाली हो और शनि आठवें भाव में हो या 6, 8, 12
भाव में शत्रु ग्रह स्थित हो तो जातक को मन्दिर, गुरूद्वारा, मस्जिद के
अन्दर ना जाकर बाहर से ही प्रणाम करना चाहिए।
12- शुक्र 9वें भाव में स्थित हो तो जातक अनाथ बच्चों को गोद न लें एंव
सफेद दही का सेंवन नहीं करना चाहिए।
13- बृहस्पति पांचवें भाव में तथा शनि प्रथम भाव में हो तो जातक कभी भी
भिखारी को भिक्षा के पात्र तांबे का सिक्का न दें अन्यथा हानि होती है।
14- बृहस्पति यदि सातवें भाव में हो तो जातक किसी को वस्त्र दान करें, घर
में मन्दिर न बनायें और घंटी व शंख बजाकर पूजा न करें। ऐसा करने से धन नष्ट
होता है।
15- बृहस्पति दशवें भाव में तथा चन्द्रमा व मंगल चैथे में स्थित हो तो जातक
अपने हाथ से पूजा स्थान न बनवायें एंव भिखारी को भिक्षा न दें वरना झूठे
आरोप में फॅसकर लम्बी सजा काटनी पड़ सकती है।
16- सूर्य यदि सातवें व आठवें भाव में हो तो जातक को प्रातःकाल सूर्य नमस्कार व दान करना चाहिए।
Read more at: http://hindi.oneindia.in/astrology/2012/tips-for-you-according-to-your-kundli-223632.html
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खंड : १ (अंक ते आतुरचिकित्सा) 7
खंड : १ (अंक ते आतुरचिकित्सा)
नोट : विश्वकोशाचे १ पृष्ठ = ७५० शब्द म्हणून नोंदीची शब्दसंख्या = नोंदीची पृष्ठे X ७५० शब्द.
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