Tuesday 19 February 2013

काम

                                        काम 



नुष्य के अन्दर उत्पन्न होने वाली समस्त कामनाएँ या इच्छाएँ काम के अन्तर्गत आती हैं । धनोपार्जन करके धर्म के विपरीत आचरण से बचते हुए मनुष्य अपनी इच्छाओं की पूर्ति कर सकता है । किन्तु युवा होने पर यौन-सम्बन्ध तथा सन्तानोत्पत्ति की इच्छा ऐसी है जो विपरीत लिंगी व्यक्ति से मिलकर ही पूरी होती है । मनुष्य अपनी सन्तान को अपनी सम्पत्ति का हस्तान्तरण करता है और परिवार में रहकर अधिक सुखी जीवन व्यतीत कर लेता है । अत: सभी समाजों में परिवार के मूल आधार ‘विवाह’ की प्रथा प्रचलित है । ‘विवाह’ शब्द संस्कृत के ‘वाह’ शब्द में ‘वि’ उपसर्ग लगाकर बना हैं । ‘वाह’ का अर्थ है धारण करने वाला, बोझा ढोने वाला । यदि स्त्री चाहती है कि पति आजीवन उसकी देखभाल करे, उसकी सन्तान के लालन-पालन में सहयोग दे, वृद्धावस्था में उसका परित्याग न करे तो उसे अपने पति को विशेष रूप से धारण करना होगा । उसे अपने पति के प्रति निष्ठावान रहना होगा, उसे आदर देना होगा और सुख-दु:ख में साथ निभाना होगा । इसी प्रकार पुरुष भी यदि पत्नी को अपने प्रति सत्यनिष्ठ रखना चाहता है, विपत्ति के समय यह चाहता है कि स्त्री उसका साथ न छोड़े तो उसे भी पत्नी का आजीवन साथ निभाने के लिए उसे विशेष रूप से धारण करना होगा । यही विवाह है । प्राचीन हिन्दू ग्रन्थों में तलाक का प्रावधान नहीं किया गया है । स्त्री-पुरुष दोनों से मर्यादित आचरण की अपेक्षा की गयी है । धर्मानुकूल आचरण करने से ही सन्तान संस्कारवान् होती है । 





विवाह के समय पिता अपनी कन्या का हाथ वर के हाथों में देता है जिसे कन्यादान कहा जाता है।इसीलिए विवाह को पाणिग्रहण संस्कार भी कहते हैं । कुछ लोगों को प्राचीन काल से चले आ रहे ‘कन्यादान’ शब्द पर आपत्ति है । वस्तुत: हिन्दुत्व एक उद्विकासी व्यवस्था है । जब सभी लोग अपने परिश्रम का अन्न खाते थे तो पिता के लिए पुत्र की भाँति पुत्री भी उपार्जन का साधन थी । पहले कन्या के पिता द्वारा वर पक्ष से पशु-धन या अन्य प्रकार का द्रव्य लेकर ही कन्या का विवाह किया जाता था । इस प्रथा को समाप्त करने के लिए कहा गया कि कन्या का दान किया जाना चाहिए । दान का अर्थ बदले में बिना कुछ पाये देना होता है । हिन्दुओं में अधिकांश विवाह वर-कन्या के सगे- सम्बन्धियों द्वारा तय किये जाते हैं । अत: कन्यादान शब्द का प्रयोग उचित है । यह भी ध्यान देने योग्य है कि पहले स्वयंवर प्रथा थी जिसमें विवाह के इच्छुक युवक एकत्र होते थे तथा उनमें से मनचाहा चयन कन्या ही करती थी । 


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