Tuesday 19 February 2013

धर्म

                                         धर्म 



धर्म शब्द संस्कृत की धृ धातु से बना है जिसका अर्थ होता है धारण करना । परमात्मा की सृष्टि को धारण करने या बनाये रखने के लिए जो कर्म और कर्तव्य आवश्यक हैं वही मूलत: धर्म के अंग या लक्षण हैं । उदाहरण के लिए निम्न श्लोक में धर्म के दस लक्षण बताये गये हैं :- 


धृति: क्षमा दमो स्तेयं शौचमिन्द्रिय निग्रह:
धीर्विद्या  सत्यमक्रोधो  दशकं धर्म लक्षणम्
विपत्ति में धीरज रखना, अपराधी को क्षमा करना, भीतरी और बाहरी सफाई, बुद्धि को उत्तम विचारों में लगाना, सम्यक ज्ञान का अर्जन, सत्य का पालन ये छ: उत्तम कर्म हैं और मन को बुरे कामों में प्रवृत्त न करना, चोरी न करना, इन्द्रिय लोलुपता से बचना, क्रोध न करना ये चार उत्तम अकर्म हैं । 




अहिंसा     परमो     धर्म:     सर्वप्राणभृतां     वर
तस्मात् प्राणभृत: सर्वान् न हिंस्यान्मानुष: क्वचित्
अहिंसा सबसे उत्तम धर्म है, इसलिए मनुष्य को कभी भी, कहीं भी,किसी भी प्राणी की हिंसा नहीं करनी चाहिए
न हि प्राणात्  प्रियतरं  लोके  किंचन विद्यते
तस्माद् दयां नर: कुर्यात् यथात्मनि तथा परे
जगत् में अपने प्राण से प्यारी दूसरी कोई वस्तु नहीं है । इसीलिए मनुष्य जैसे अपने ऊपर दया चाहता है, उसी तरह दूसरों पर भी दया करे
जिस समाज में एकता है, सुमति है, वहाँ शान्ति है, समृद्धि है, सुख है, और जहाँ स्वार्थ की प्रधानता है वहाँ कलह है, संघर्ष है, बिखराव है, दु:ख है, तृष्णा है । 


धर्म उचित और अनुचित का भेद बताता है । उचित क्या है और अनुचित क्या है यह देश, काल और परिस्थिति पर निर्भर करता है । हमें जीवनऱ्यापन के लिए आर्थिक क्रिया करना है या कामना की पूर्ति करना है तो इसके लिए धर्मसम्मत मार्ग या उचित तरीका ही अपनाया जाना चाहिए । हिन्दुत्व कहता है -
अनित्यानि शरीराणि विभवो नैव शाश्वत:
नित्यं  सन्निहितो मृत्यु: कर्र्तव्यो धर्मसंग्रह:
यह शरीर नश्वर है, वैभव अथवा धन भी टिकने वाला नहीं है, एक दिन मृत्यु का होना ही निश्चित है, इसलिए धर्मसंग्रह ही परम कर्त्तव्य है
सर्वत्र धर्म के साथ रहने के कारण हिन्दुत्व को हिन्दू धर्म भी कहा जाता है । 


No comments:

Post a Comment