हिन्दू दृष्टि
समतावादी एवं समन्वयवादी
हिन्दू
विचारक कहता है ‘उदारचरितानाम् वसुधैव कुटुम्बकम्’ । श्रेष्ठता-मनोग्रन्थि
या हीनता-मनोग्रन्थि निम्न स्तर के लोगों में पायी जाती है । हिन्दू
विचारधारा का जो जितना ही अधिक ज्ञाता होगा, वह उतना ही अधिक उदार होगा और
उसे यह सम्पूर्ण विश्व ही कुटुम्ब के समान दिखायी देगा । वर्ण व्यवस्था और
अस्पृश्यता के प्रचार के लिए पाखण्डी और स्वार्थी तत्त्व उत्तरदायी हैं ।
अपनी अज्ञानता और कुकृत्य को छिपाने के लिए जन्म के आधार पर ऊँच-नीच का भेद
फैलाया गया है । वर्ण-व्यवस्था झूठ पर आधारित व्यवस्था है जो पाखण्डियों
द्वारा निर्मित, पाखण्डियों द्वारा पोषित और पाखण्ड के विस्तार के लिए है ।
हिन्दू धर्म अपने चरम पर प्रत्येक व्यक्ति में परमात्मा को ही देखता है ।
धर्म की दृष्टि में न तो कोई अगड़ा है, न पिछड़ा, न दलित । धर्म न्याय का
साथ देता है जिसमें सामाजिक न्याय शामिल है; निर्बल और असहाय को सहारा देने
की बात करता है; दीन-दु:खी के आँसू पोछने की बात करता है; श्रमिक को उसका
पूर्ण पारिश्रमिक देने की बात करता है; उत्पीड़न और अत्याचार का विरोध करने
की प्रेरणा देता है ।
हिन्दुत्व
हिन्दुओं को किसी एक प्रकार के रीति-रिवाज से नहीं बाँधता । किसी एक दर्शन
को मानने के लिए बाध्य नहीं करता, किसी एक मत को अंगीकार करने के लिए विवश
नहीं करता । यह ईश्वर में आस्था रखने या न रखने की छूट देता है । यह ऐसा
उद्यान है जहाँ अधिक फल-फूल प्राप्त करने के लिए पेड़-पौधों की कटाई-छँटाई
की जा सकती है । नये पेड़-पौधे लगाये जा सकते हैं । यह समन्वयकारी व्यवस्था
है जो सबको अपने विचार प्रकट करने की स्वतन्त्रता देती है फिर भी
आत्मानुशासन के बल पर पल्लवित और प्रस्फुटित हो रही है । यदि किसी को इस
व्यवस्था में जड़त्व दिखता है तो सकारात्मक सुझाव देना चाहिए । लोगों को
शराब, जुआ आदि से दूर रहने तथा सदाचरण के लिए प्रेरित करना चाहिए । ढोंगी
साधुओं और पाखण्डी धर्म-गुरुओं से हिन्दू धर्म का उत्थान नहीं हो सकता ।
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