सती का अर्थ पति के
प्रति सत्यनिष्ठा है
पत्नी की
सत्यनिष्ठा पति में होने को हिन्दू धर्म में आदर्श के रूप में देखा गया है
। स्त्री संतान को जन्म देती है । बालक/बालिका को प्रारम्भिक संस्कार अपनी
माता से ही मिलता है । यदि स्त्री स्वेच्छाचारिणी होगी तो उसकी संतान में
भी उस दुर्गुण के आने की अत्यधिक सम्भावना रहेगी । पुरुष संतति-पालन का भार
उठाने को प्राय: तभी तैयार होगा जब उसे विश्वास होगा कि उसकी पत्नी के उदर
से उत्पन्न संतान का वास्तविक पिता वही है । पति की मृत्यु होने पर भी
उत्तम संस्कार वाली स्त्री संतान के सहारे अपना बुढ़ापा काट सकती है ।
पश्चिम के आदर्शविहीन समाज में स्त्रियाँ अपना बुढ़ापा पति के अभाव में
अनाथाश्रम में काटती हैं ।
इसका अर्थ
यह नहीं है कि पुरुष को उच्छृंखल जीवन जीने की छूट मिली हुई है । एक
पत्नीव्रत निभाने की अपेक्षा पुरुष से भी की गयी है; किन्तु ऐसा करने वाले
पुरुष पर कोई महानता नहीं थोपी गयी है । गृहस्थी का कामकाज देखने वाली
स्त्री अपने पति के प्रति सत्यनिष्ठ होकर ही महान हो जाती है जबकि पुरुष
देश की रक्षा, निर्बलों की रक्षा, जनोत्थान के कार्य करके महान बनता है ।
अपने पति
की चिता में बैठकर या कूदकर जल मरने वाली स्त्री को सती नहीं कहा गया । इस
तरह का दुष्प्रचार पाखण्डियों द्वारा ही किया जाता है । विधवा स्त्री को
मिलने वाली सम्पत्ति का हरण करने के लिए उसके परिवार वाले इस प्रकार का
नाटक रचाते हैं । शान्तनु के मरने पर सत्यवती जीवित रही । दशरथ के मरने पर
उनकी तीनों रानियां जीवित रहीं । पाण्डु के मरने पर कुन्ती जीवित रही ।
माद्री ने चिता में कूदकर आत्महत्त्या ग्लानिवश की क्योंकि वह पति के मरण
का कारण बनी थी । सती अनसूया, सती सावित्री किसी को भी सती पति के साथ जल
मरने के लिए नहीं कहा गया ।
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